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________________ ( २० ) अपेक्षा अधिक है। तात्पर्य यह कि सिद्धान्ताचार्य कैलाशचन्द्र जी को साथियों या समाज ने जो कार्य या पद दिया, उसे उन्होंने द्यानतदारी से संभालकर सुख माना तथा अन्य विद्याव्यासंगियों के समान किसी दायित्व या प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न नहीं किया । वे कहा करते थे कि 'मैं तो धर्म और अधर्म द्रव्यों के समान तटस्थ या अन्यथा सिद्ध कारण हूँ। विद्यालय स्याद्वाद महाविद्यालय, संघ तथा प्रकाशनादि के लिए होते हैं तो मैं अनुगामी होने में भी संकोच नहीं करता । 'नहीं होते' तो मैं अग्रगामी नहीं बनता ।' स्पष्ट ज्ञानपुंज उनका अध्ययन, अध्यापन, प्रवचन, लेखन तथा सम्पादन प्रसाद, माधुर्यपूर्ण एवं ससार होता था। वे जिन ग्रन्थों को पढ़ते-पढ़ाते थे वे या उनकी वस्तु (मूल विषय) उनकी स्मृति में अङ्कित हो जाती थी। यही कारण है कि अपने जीवन के अन्तिम तथा कर्मठ दशकों में 'जैन न्याय' जिन वाङ्मय के इतिहास के समस्त खण्डों को ही नहीं, बल्कि जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड आदि को साधारण स्वाध्यायियों के लिए सुगम कर गए हैं। प्रारम्भ में 'जयधवला' कार्यालय के कारण बना अपराह्न २ से ५ बजे तक बैठने, चिन्तन और लेखन का दायित्व उनका स्वभाव बन गया था। जो जब तक किसी प्रबल असाता के उदय अर्थात् १९८० तक एक रूप से चला। इसके बाद कुछ तथोक्त-प्रशंसकों के कारण प्रकृति में परिवर्तन आया । तथापि उन्होंने हार नहीं मानी। यही कहते रहे कि 'अभी मुझे अपने में बुढ़ापे (वार्द्धक्य) के कोई लक्षण नहीं दीखते।' शारीरिक दृष्टि से यह मत्य भी था। क्योंकि युवावस्था के साथ ही दमापीड़ित अपनी काया को उन्होंने जिह्वा-निग्रह, औषधि तथा पोषक-ग्रहण और पत्नी को तीसरी शल्य-प्रसूति जन्य मृत्यु के संयोग से बचाने के लिए कृत पुंवेद-नियन्त्रण तथा संयम द्वारा ऐसा कर लिया था कि परिणत वय में उन्हें देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि ये कभी दमा के रोगी रहे होंगे। वे अपने जीवन से संतुष्ट थे। कहा करते थे अन्त समय "अभी क्या जाना, अन्त समय ठीक वीन जाये तो मानगा ।' क्या उन्हें अपने भविष्य का आभास था । दाँत, आँख, कान और अन्त में स्मृति ने भी उनका ख्याल नहीं किया। जिनधर्मी वाङ्मय का चलता-फिरता रूप विवश हो गया; पूर्वबद्ध निकाचित उदय के सामने । उनसे अन्तिम भेंट के बाद से ही सोचता हूँ ----'मित्र-पुष्ट एवं मान्य जैन वाङमय का संयत एवं समर्पित साधक, अब नहीं रहेगा। जिज्ञासाएँ अब भटकेंगी।' वह दीपक बूझ गया। अपने गुरुओं, साथियों और हम अनुजों से अधिक कर्मठ, प्राप्ताल्प-सन्तोषी तथा आ-चैतन्य शारदा-साधक को यदि बुद्धिभ्रश हो सकता है, तो हमारा भविष्य ? "विधिरहो बलवानिति मे मतिः"शत-शत प्रणामों सहित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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