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________________ वाङ्मय की उस समकालीन शोध की भी पूर्ण भिज्ञता प्राप्त की थी जो अंग्रेजी या प्राकृत भाषादि के कारण, इनके पूर्ववर्ती जैन-जनेतर मनीषियों को दुर्लभ थी। ख्याति से परे स्व० पण्डित जी की इस साधना का प्रथम प्रसून 'न्याय कुमुदचन्द्र' का प्रथम भाग था, जिसमें स्व० पण्डित महेन्द्रकुमार जी सहयोगी थे तथा स्व० पण्डित नाथूराम 'प्रेमी' की प्रेरणा से यह कार्य पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने हाथ में लिया था तथा संकल्प किया था कि इसका सर्वाङ्ग समग्र संपादन करेंगे। इस संकल्प की पूर्ति के लिए प्रवास, पाठमिलान आदि शारीरिक श्रमसाध्य कार्यों को स्व० पण्डित महेन्द्रकुमार जी ने किया था। फलतः उनके उत्साह को स्थायित्व देने के लिए पण्डित कैलाशचन्द्र जी ने इन्हें ही सम्पादक के रूप में स्वीकार किया था और अपने को केवल भूमिका लेखक ही रखकर तत्कालीन जैन मनीषियों (स्व० पण्डिा सुखलाल जी संधवी, आचार्य जुगुल किशोर मुख्तारादि) को चकित कर दिया था तथा अपनी सूक्ष्म परख और तटस्थ दृष्टिकोण का लोहा मनवा दिया था; जिसके दर्शन उनकी मौलिक कृति 'जैन इतिहास की पूर्व पीठिका' में होते हैं। हाजिर में हुज्जत नहीं गैर की तलाश नहीं जब आर्य समाज के प्रमुख शास्त्रार्थी विदान् ने ही जैन तत्त्व-ज्ञान पर मुग्ध होकर स्वामी कर्मानन्द रूप धारण कर लिया तो सामाजिक उत्थान की उपशम श्रेणी के ज्वलन्त निदर्शन, स्व० पण्डित राजेन्द्र कुमार जी ने 'शास्त्रार्थ संघ' के विधायक रूप को प्रधानता दी और शार्दूल-पण्डित से प्रभावित जिनधर्मी समाज ने अग्रज जिनधर्मी संस्थाओं ( भा. महासभा तथा परिषद् ) से अधिक महत्व भा० दि० जैन संघ को दिया तथा एक दशक में ही इसका मुखपत्र, सरस्वती भवन, प्रकाशन, भवन तथा (जीवनदानी, स्वल्पसंतुष्ट तथा समर्पित) दर्जनाधिक वक्ता, लेखक तथा संचालकों ने संघ को जीवित संस्था बना दिया था । सर्वोत्तम प्रेरित सहयोगी इस यात्रा में स्व० पण्डित कैलाशचन्द्रजी सर्वोपरि थे क्योंकि वे 'अहिंसा' 'भगवान् महावीर का अचेलक धर्म' आदि पुस्तिकाएँ (ट्रेक्ट) भी उसी गम्भीरता से लिखते थे। जिसकी झलक 'जैन सन्देश' के सम्पादकीयों में स्पष्ट थी। 'जैन धर्म' ऐसी मौलिक सुपाठ्य कृति ने उत्तराकालीन लेखकों को इतना प्रभावित किया था कि इसके तुरन्त बाद ही समाज को 'जैनशासन' तथा 'जैन दर्शन' पुस्तकें देखने को मिली थीं। यही कारण था कि संघ ने जब जयधवला का प्रकाशन हाथ में लिया तो पण्डित कैलाशचन्द्र ही प्रधान सम्पादक रहे । गो कि वे मुक्तकण्ठ से कहा करते थे कि इन मूल सिद्धान्त-ग्रन्थों के उद्धार का श्रेय, धीमानों में स्व० पण्डित हीरालाल (साढ़मल), फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री तथा लालचन्द्र शास्त्री, (वीर सेवा मन्दिर) को, इनके प्रधान सम्पादकों [स्व० हीरालाल, आ० ने० उपाध्ये] की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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