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________________ ( १८ ) शिष्य - समुदाय छोड़ गए गुरुओं को सम्मान दिया, साथियों को उनकी क्षमता के अनुसार अध्यापन, सम्मानादि में लगाकर बढ़ाया और अनुज विद्वानों को समाज में प्रतिष्ठित करके ऐसे लोगों को छोड़ा है; जो समाज की संस्थाओं का आज भी संचालन कर रहे हैं । क्रान्तिकारी स्व० पण्डित चैनसुखदास जी ने जयपुर को केन्द्र बनाकर जैन समाज के श्रीमान् किन्तु प्रवाह - पतित मारवाड़ी समाज का विवेकचक्षु ही नहीं खोला था, अपितु ऐसा हैं जो उनकी अलख को जगाए हैं। गुरुवर पण्डित गोपालदास जी और स्थितिपालक जैन समाज को जगाने का मार्ग शार्दूल पण्डित दि० जैन शास्त्रार्थ संघ ( अम्बाला ) के रूप में आया था । इसमें स्व० लाला शिब्बामल ( अम्बाला ) अर्हद्दास ( पानीपत) आदि धीमान् जहाँ उनके साथी थे वही स्व० पण्डित अजितकुमार, मंगलसेन ( वेद - विशारद) वाणी भूषण तुलसीराम ( बड़ौत ), आदि धीमान् प्रमुख सहयोगी थे । के बाद आर्य समाज राजेन्द्रकुमार जी पर योग्यतम सहाध्यायी स्व० पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्री पण्डित राजेन्द्रकुमार जी के व्युत्पन्न, शान्त तथा अनुशासित सहाध्यायी थे । इनकी वाणी में रस था, स्वभाव में मधुरता, व्यवहार में सरलता तथा आगमानुकूल कथन में निर्भीकता थी । फलतः शार्दूल - पण्डित ने इनकी क्षमताओं को पुष्ट करने और समाज को उनसे लाभान्वित होने का त्रिविधयोग जुटाया । और भारतीय बौद्धिक वर्ग को समर्पित प्राचार्य युक्तिशास्त्रानुकूल मार्गदर्शक - सम्पादक तथा आधुनिक शोध शैली-परक राष्ट्रभाषा के मौलिक लेखक के रूप स्व० पं० कैलाशचन्द्र का पूरी आधी शती तक प्रदर्शन-विहीन तथा विनम्र स्पष्ट नेतृत्व प्राप्त रहा I धर्मशास्त्री स्वर्गीय पं० कैलाशचन्द्र जी ने अपने गुरुओं से प्राच्यपद्धति (विषम का सांगोपांग वाचन, धारण तथा आम्नाय या मुख से पारायण) के अनुसार सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन किया था । उन्हें अपने पठित ग्रन्थ कण्ठस्थ थे । स्याद्वाद महाविद्यालय द्वारा १९२७ में धर्माध्यापक रूप से उन्हें बुलाये जाने का यही कारण था । उनके अंग्रेज सहाध्यायी पं० जगमोहनलाल शास्त्री ( कटनी) ने भी इनकी ग्रन्थो - परीस्थिति की उत्कृष्टता को स्वीकार करके जैन समाज के प्रथम तथा सर्वोपरि गुरुकुल ( श्री स्याद्वाद महाविद्यालय के धर्माध्यापकत्व के लिए इन्हें ही उत्तम माना था तथा वह सर्वथा सत्य भी निकला । क्योंकि ये समय पाबन्द स्वाल्प, संतुष्ट तथा छात्र हितलीन अध्यापक थे तथा अपने सहाध्यायियों के समान अध्ययन या विद्यार्थित्व का त्याग नहीं कर सके थे। इन्होंने छात्रों के साथ श्वेताम्बर न्यायतीर्थ परीक्षादि ही नहीं उत्तीर्ण की थी अपितु प्राच्यशोध की भिज्ञता के लिए अपने छात्रों से ही पढ़कर मैट्रिक (अंग्रेजी) परीक्षा भी पास की थी तथा व्युत्पन्न छात्रों के सहयोग से इतिहास - पुरातत्व एवं पाश्चात्यशोधकों द्वारा कृत, प्राच्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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