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हिन्दी अनुबाद और सम्पादन की दिशा में आपकी अपनी "न्याय कुमुद चन्द्रोदय " हो चाहे " तत्वार्थसूत्र" हो । धर्मामृत हों या सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द आचार्य का और सुबोध भाषा में, छोटे-छोटे वाक्विन्यासों द्वारा खोलने का प्रयत्न किया है । प्रत्येक ग्रन्थ के साथ और साहित्यकारों पर पर्याप्त प्रकाश
• संस्कृत - प्राकृत आगम के मौलिक विशेषता थी । चाहे वह आशाधर जी के सागर अनगार गोमट्टसार । हर जगह आपने स्पष्ट ग्रन्थकार के अन्तर्गत अभिप्राय को शोधपूर्ण भूमिका देकर ग्रन्थ के पूर्वापर साहित्य
डाला है ।
मुझे अनेक बार कई सप्ताहों तक पण्डित जी ने सान्निध्य में रहने का अवसर मिला है। बहुत निकट से मैंने यह अनुभव किया है कि उनके व्यवहारों में भले ही बाहर से कुछ शुष्कता या नीरसपना दिखाई देता रहा हो, परन्तु भीतर से वे अत्यन्त सुकोमल, भावुक और भक्त हृदय व्यक्ति थे । अपनी कलम के साथ वे पूरी ईमानदारी बरतते थे. शायद इसीलिए समाज में किसी भी पक्ष को कथित समय पर वे सन्तुष्ट नहीं समय के लिए जो भी उन्हें अपना समर्थक या पक्षधर मान बैठता था लेखनी से अपनी तीखी आलोचना पढ़कर वह उन्हें विरोधी मानने लगता था । समाज के भीतर इस प्रकार के अनेक खट्टे अनुभव उनके साथ जुड़े थे और इसीलिए वे प्रायः अपने काम से काम रखने वाली नीति पर अधिक विश्वास करते थे ।
एक शिकायत पण्डित कैलाश चन्द्र जी के बारे में प्रायः सुनने को मिलती थी कि मुनियों पर उनकी कोई श्रद्धा नहीं है और वे मुनिसंघों में जाने से प्रायः कतराते हैं, परन्तु इस बारे में मेरा अनुभव बिलकुल दूसरी तरह का रहा । सन् ६४ में विशुद्धमति माता जी की दीक्षा के समय जब शिवसागर जी महाराज के संघ से मेरा परिचय हुआ तब उसकी चर्चा मैंने उनसे की और एक बार संघ का दर्शन करने का उनसे आग्रह किया । वे तत्काल मेरे साथ पपौरा गए और उस संघ की शास्त्रोक्त प्रक्रियाओं से ऐसे प्रभावित हुए कि फिर हमेशा के लिए आचार्य शिवसागर जी के भक्त और आर्थिक विशुद्धमति माता जी के प्रशंसक बन गए ।
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लगभग दस वर्ष पहले जब पूज्य आचार्य विद्यासागर जी का कुण्डलपुर में चातुर्मास हुआ तब मैंने इस संघ के दर्शन करने का भी उनसे अनुरोध किया । मेरे ही साथ वे कुण्डलपुर गए, आचार्यश्री से अच्छी चर्चाएँ की और भक्ति-विह्वल दोकर उन्हें आहार दिया । उस दिन उनकी भावुकता धार होकर बह पड़ी। प्रायः पाँच मिनिट तक यह दृश्य रहा कि वे आचार्यश्री की अंजूरी में ग्रास देते थे और उधर लगातार उनकी अश्रुधारा
।
आचार्य श्री मन्द मुस्कान के साथ
बह रही थी, जिसे पोंछने का काम मैं कर रहा था आहार ग्रहण कर रहे थे । अपने गुरु पूज्य वर्णी जी के समान श्रद्धा और भक्ति रखते थे । वर्णीजी की समाधि के अवसर पर लगभग पाँच सप्ताह
में तो वे अबोध बालक के
रख पाए । थोड़े शीघ्र ही उनकी
बारे
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