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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और उनकी अमरकृति 'साकेत'
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नाथ अपने आराध्य राम की सेवा भली प्रकार न कर सकेंगे । ' कहकर हाय धड़ाम गिरी' के अतिरिक्त वह बेचारी और कर ही क्या सकती थी ! यहाँ पर राम और सीता सभी की वह सहानुभूति की पात्र बन जाती हैं । वस्तुतः यह 'साकेत' का बहुत ही मार्मिक स्थल है ।
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अपने निश्चय को नहीं
तदुपरान्त दशरथ मरण और भरतागमन वर्णित है । दशरथ की मृत्यु पर सभी नागरिक शोक संतप्त हो जाते हैं । यहाँ पर कवि ने उर्मिला को मौन रखा है वह केवल 'माँ, कहाँ गये वे पूज्य पिताजी' कहकर कैकेयी के आगे जा गिरती है । यहाँ कैकेयी के आगे उसका गिरना पाठक की हार्दिक करुणा को जगा देता है । ऐसे ही वह भरत - कैकेयी के वार्त्तालाप और फिर चित्रकूट में राम-भरत तथा राम - कैकेयी के सम्वाद के अवसर पर भी प्रायः मौन रहती है । कैकेयी द्वारा बहुत कुछ समझाये जाने पर भी जब राम बदलते तो कैकेयी कहती है- 'हाँ, तब तक मैं क्या कहूँ सुनूंगी किससे ?" कैकेयी के इस प्रश्न पर उर्मिला केवल इतनी ही कहती हैं कि 'ऐ माँ ! उर्मिला अब भी जीवित है, वह आपके चरणों की दासी बनकर रहेगी। इससे अधिक करुणाजनक कौन-सा अवसर कवि ला सकता है कि जिसने उसके साथ अपकार किया है, जिसके कारण उसकी यह दीन-हीन दशा है, उसी के लिये वह अपना जीवन न्यौछावर करने को प्रस्तुत है । इसी चित्रकूट - मिलन प्रसंग में afa ने अपनी सहृदयता का एक और परिचय दिया है और वह यह कि उसने सीता के द्वारा एक क्षण के लिये उर्मिला-लक्ष्मण का मिलन करा दिया है। जब लक्ष्मण कुटिया के एक कोने में पड़ी देखते हैं तो उन्हें भ्रम हो जाता है— 'वह काया है या शेष उसी की छाया है' । लक्ष्मण उसके उस त्याग और उसकी उस दयनीय स्थिति को देखकर अभिभूत हो जाते हैं । फलतः तपस्या द्वारा अपने को उसके ( उर्मिला के ) योग्य बनने की बात कहते हैं ।
नवम सर्ग तो पूरा ही उर्मिला की विरह वेदना के तानों बानों से बुना गया है । दसम सर्ग में वह स्वयं सरयू से ही अपने जन्म, शैशव, रघुकुल की परम्परा, राम-लक्ष्मण जन्म, बाललीला, ताड़का वध, पुष्प - वाटिका प्रसंग, धनुष यज्ञ, परशुराम - गर्वमर्दन आदि का वर्णन करती है ।
एकादश सर्ग में पहले शत्रुघ्न द्वारा राम-लक्ष्मण के साहसपूर्ण कृत्यों का और तदुपरान्त हनुमान द्वारा लक्ष्मण शक्ति का वर्णन है । इस वर्णन को सुनकर उर्मिला की मानसिकता क्या हुई होगी, सहृदय इसका स्वयं ही अनुमान कर सकते हैं। हनुमान के जाने के उपरान्त अयोध्यावासी लंका पर चढ़ाई करने की तैयारी करते हैं। ज्योंही शत्रुघ्न प्रयाण करने को उद्यत होते हैं, त्योंही उर्मिला वहाँ आ जाती है और अपने वीरपत्नीत्व का परिचय देती है । इसके पश्चात् वसिष्ठ अपनी योग-दृष्टि से लंका के युद्ध का सारा दृश्य साकेतवासियों के सम्मुख ला देते हैं । लक्ष्मण की स्थिति देखकर सभी नगरवासी जड़ीभूत हो जाते हैं और उर्मिला ने तो 'देखा अपना हृदय, मन्द-सा स्पन्दन पाया' । आगे सभी लोग मेघनाद वध, रावण-संहार आदि के दृश्य देखते हैं । लंका विजय के उपरान्त राम सीता और लक्ष्मण सहित घर आ जाते हैं और वे भी वधू उर्मिला के गुण-गीत गाते हैं ।
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