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________________ गुप्तजी की काव्य-दृष्टि डा० अवधेश्वर अरुण * मेरी धारणा है कि किसी भी कवि का समग्र काव्य-व्यक्तित्व उसके युग-बोध, जीवनबोध और काव्य-बोध का गुणनफल होता है । इसलिए उसके साहित्य की समीक्षा का प्रामाणिक निकष भी इन्हीं तीन तत्त्वों के विश्लेषण में निहित होना चाहिए। कवि की नैसर्गिक काव्य-प्रतिभा को सजाने, सँवारने और समुन्नत बनाने में व्युत्पत्ति और अभ्यास की असंदिग्ध भूमिका भारतीय काव्य - शास्त्र में स्वीकृत रही है । व्युत्पत्ति में शास्त्र - ज्ञान और कानुगमन की जो बात कही गई है वही प्रकारान्तर से युग-वोध, जीवन-बोध और काव्य-बोध है । युग-बोध में समसामयिक घटनाओं और परिस्थितियों का वृहत्तर परिवेश समाहित होता है तो जीवन-बोध में निजी जीवन की प्रभावशाली घटनाओं और अनुभूतियों का गहन संसार निहित होता है | काव्य-बोध कवि के अध्ययन, मनन, शास्त्रज्ञान और काव्य-परम्परा से गहरे परिचय से निर्मित होता है । इस तरह युग, जीवन और काव्य के सम्बन्ध में कवि के ज्ञान और अनुभव का जो सारतत्त्व धारणा के रूप में उसकी रचनाओं से माध्यम से व्यक्त होता है उसे ही युग-दृष्टि, जीवनदृष्टि और काव्य-दृष्टि कहते हैं । प्रस्तुत निबन्ध में भारतीय संस्कृति के आख्याता, वैष्णवता की प्रतिमूर्ति, राष्ट्रीयता के प्रखर उद्घोषक और मानवीय राग की विविध भंगिमाओं के गायक स्वतन्त्रता सेनानी मैथिलीशरण गुप्तजी की काव्य-दृष्टि पर विचार करना लक्ष्य है । किसी भी कवि की काव्य-दृष्टि पर विचार करने के क्रम में दो बातों पर ध्यान रखना आवश्यक होता है । प्रथम यह कि उसके काव्य शास्त्रीय संस्कार और उसकी काव्य-परम्पराविषयक दृष्टि क्या है तथा द्वितीय उसने अपने युग के ज्ञान-विज्ञान को कितना और किस रूप में आत्मसात किया है । सबसे पहले गुप्तजी के काव्य-संस्कार और काव्य - परम्परा पर विचार करें। गुप्तजी ने विद्यालयीय शिक्षा बहुत कम प्राप्त की थी, जो कुछ सीखा था वह स्वाध्याय से | अतः यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने अपने काव्य-संस्कार और काव्य-दृष्टि का निर्माण किन रचनाओं के अध्ययन से किया । इस सम्बन्ध में मैं डॉ० के० एस० मणि की निम्न पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहता हूँ - "झाँसी से घर लौटने पर गुप्तजी स्वाध्याय में मन लगाने लगे । हिन्दी और बंगला से अनूदित हिन्दी उपन्यास और पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने का उन्हें बड़ा शौक था । शृंगारी पद्य भी उनको बहुत पसन्द थे । अजमेरी की प्रेरणा से संस्कृत श्लोकों को कण्ठस्थ करने की इच्छा हुई। पंडित रामस्वरूप शास्त्री संस्कृत व्याकरण पढ़ा। श्री दुर्गादत्त पंत और पंडित अयोध्यानाथ जी से संस्कृत के वृहत्त्रयी और लघुत्रयी के अनेक श्लोक सुने । * रोडर, हिन्दी विभाग, बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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