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गुप्तजी की काव्य-दृष्टि
167 उसके बाद का स्वाध्याय गुप्तजी के भविष्य के काव्य-जीवन की भूमिका बना । उन्होंने संस्कृत के अनेक काव्य-नाटकों का अध्ययन किया । कालिदास और भास के प्रति उनका विशेष मोह था । अतः इन दोनों का भी विशद अध्ययन किया । हिन्दी में अपने समय के समस्त साहित्य ग्रन्थों का अध्ययन किया। इनमें रोतिग्रन्थ, भक्तिपरक रचनाएँ और साहित्य शास्त्र ग्रन्थ ( संस्कृत और हिन्दी के ) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गुप्तजी ने इन दिनों बंगला का भी अध्ययन किया और बंगला में उच्चश्रेणी के साहित्यिकों की रचनाओं का परिचय पाने में भी समर्थ हुए।
इस लम्बे उदाहरण से हम आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि गुप्तजी ने संस्कृत तथा पूर्ववर्ती हिन्दी साहित्य और साहित्य शास्त्र का सम्यक् अध्ययन किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत व्याकरण और बंगला साहित्य का भी अध्ययन किया था। भारत भारती में आए अनेक उद्धरणों से स्पष्ट है कि उन्होंने वेद, उपनिषद्, गीता, पुराण आदि का भी गहन अध्ययन किया था। सब मिलाकर यह कह सकये हैं कि उनके साहित्यिक संस्कार और साहित्य शास्त्रीय दृष्टि का निर्माण भारतीय साहित्य शास्त्र के आधार पर हुआ था। वे भारतीय संस्कृति, काव्य और काव्य शास्त्र के मनीषी कवि थे।
भारतीय साहित्य शास्त्र के अध्ययन से उनकी जिस काव्य-दृष्टि का निर्माण हुआ वह एकांगी नहीं था। ईसाई एवं मुस्लिम धर्मग्रन्थों, भारतीय इतिहास और दर्शन पर लिखित विदेशी लेखकों की पुस्तकों तथा पश्विम में विकसित हो रहे वैज्ञानिक अनुसन्धान से सम्बन्धित नूतन गतिविधियों के अध्ययन से भी उन्होंने अपनी दृष्टि का समुचित विस्तार किया था। भारत-भारती में दी गई पाद-टिप्पणियों से उनके अध्ययन क्षेत्र और ज्ञान-परिधि का अनुमान लगाया जा सकता है। सारांशतः एक जागरूक किन्तु भारतीयता प्रिय कवि को भारतीय साहित्य एवं साहित्यशास्त्र तथा आधुनिक चिन्तन का जितना ज्ञान अद्यतन बनने के लिए आवश्यक होना चाहिए उतना ज्ञान गुप्तजी के पास था। उनकी दृष्टि में मानवतावादी औदार्य की विस्तृति होते हुए भी भारतीयता की प्रखर दीप्ति अनुभव की जा सकती है। पुरातन और नवीन को मिलाकर वे एक ऐसी दृष्टि निर्मित करने में सक्षम हुए थे जिसमें वे अपने संस्कारों को लेकर समय के साथ चल सकें।
कविता, काव्य, साहित्य, कला आदि शब्दों के प्रयोग में गुप्तजी की दृष्टि द्वैताद्वैतवादी है। अर्थात् कहीं तो वे इन शब्दों का सही अर्थों में अलग-अलग प्रयोग करते हैं और कहीं इन शब्दों से उनका एक ही आशय होता है । लेकिन सब मिलाकर वे इस प्रसंग में पाश्चात्य दृष्टि के समर्थक हैं । पश्चिमी जगत् में कला शब्द व्यापक अर्थ में साहित्य, संगीत, चित्र, मूर्ति एवं वास्तु कलाओं के अर्थ में प्रयुक्त होता है। भारतीय परम्परा साहित्य और संगीत से अलग कला का प्रयोग करती है और यह चौसठ-कलाओं के प्रसंग में रूढ़ मानी जाती है । यह भर्तृहरि की उक्ति "साहित्यसंगीतकलाविहीनः" से यह स्पष्ट है ।
साहित्य गद्य और पद्य दोनों में लिखित रचनाओं के लिए प्रयुक्त होता है जबकि काव्य और कविता शब्द मोटे तौर पर केवल पद्य रवनाओं के लिए प्रयुक्त होते हैं । उपन्यास,
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