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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की कव्य-यात्रा
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उन्होंने अपनी कलम की जादूगरी से परवान चढ़ाया। काव्यभाषा का, उसके सहज प्रवाहमय परिष्कृत भाषा का उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया।
एक आलोचक ने ठीक ही कहा है कि विश्वकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर की तरह उनके भीतर भी एक नारी विद्यमान थी । इसीलिए उनका आकर्षण सीता, कैकेयी, उर्मिला, सुमित्रा कौशल्या, मांडवी, श्रुतिकीति, यशोदा, कुब्जा, राधा और यशोधरा-सबके प्रति था, जो महान् मानवीय मूल्यों की रक्षा में अपने आपको हर युग में मौन भाव से उत्सर्ग करती आयी हैं । 'काव्य की उपेक्षिता' जैसे निबन्धों की ही प्रेरणा न थी, उसके मूल में अन्तः प्रेरणा थी, जिसने गुप्त जी की प्रतिभा को अन्तःप्रज्ञा को भारत के इन नारी-रत्नों के त्यागमय, सेवामय, समर्पणमय चरित्रों के उद्भावन, उनकी विरह व्यथा को, कारुण्य धारा को यों उजागर करने की दृष्टि, शक्ति प्रदान की। गुप्त जी इन नारी-रत्नों में वाल्मीकि की संवेदना को और करुणा की धारा को आधुनिक युग तक ला सके।
गुप्त जी इस अर्थ में ही राष्ट्रकवि नहीं हैं कि भारतेन्दु की चेतना से अनुप्राणित हो भारत की स्वतन्त्रता के गोत वैतालिक की तरह आधी सदी तक रचते और गाते रहे, साथ ही माखनलाल चतुर्वेदी 'भारतीय आत्मा', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', रामधारी सिंह 'दिनकर', गोपाल सिंह 'नेपाली', सोहनलाल द्विवेदी और श्यामनारायण पाण्डेय जैसे हिन्दी के आधुनिक कवियों की काव्य-वाणी को किसी न किसी स्तर पर प्रभावित और अनुप्रेरित करते रहे । अपितु वे इसलिए भी राष्ट्रकवि सच्चे अर्थों में हैं कि अपने छोटे-बड़े प्रबन्ध काव्यों, काव्यरूपकों के माध्यम से भारत के उत्थान-पतन, पुनर्जागरण, गुलामी की गहरी पीड़ा, स्वाधीनता का उद्बोधन, भारतीय सभ्यता और संस्कृति की बेचैन तलाश, राम, कृष्ण, बुद्ध, गुरु नानक, गाँधी, सीता, यश धरा और उर्मिला आदि चरित्रों के युगानुकूल पुनरुद्भावन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के नित गतिशील यात्रा का इतिहास गढ़ा है। उनकी तमाम रचनाओं में हिन्दी कविता के विकास का ही इतिहास निहित नहीं है, उसमें भारत की संस्कृति की गतिशील जीवन-धारा का इतिहास संजो दिया है। वस्तुतः भारत की आत्मा का स्पन्दन उनकी काव्यवाणी में मुखरित हुआ है, राष्ट्र की समग्र चेतना को उन्होंने वाणी दी है, इसलिए वे राष्ट्रकवि हैं । वे भारत की शाश्वत संस्कृति की गंगा को प्रवाहित करने वाले बीसवीं सदी के भगीरथ हैं, जिनकी पावन वाणी हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य को अपनी प्रखर कथा तूलिका से पूरी शक्ति, सौंदर्य और गरिमा में मूर्तिमान कर सकी है
हम क्या थे क्या हो गये, क्या होंगे अभी,
आओ मिलकर विचारें सभी। धन्य है राष्ट्रकवि की तप:-पूत साधना-प्रसूत भारत की आत्मा की वाणी। रससिद्ध कवीश्वर मैथिलीशरण गुप्त की कृति वाणी की जय हो । जय भारत-भारती ।
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