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________________ 164 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 रुदन करुणाप्लावित तूलिका से नाना रूपों और रंगों में उभारा है। यों तो उस विरहिनी नारी का करुण कातर स्वर साकेत में सर्वत्र गूंज रहा है, पर साकेत का ९-१० सर्ग उर्मिला की विरह-वेदना की मर्मस्पर्शी गाथा है । इस अवधि तक आते-आते गुप्त जी की रचनाधर्मिता पर छायावादी गीतशैली की कोमलता, अनूठी भाव-व्यञ्जना, लाक्षणिकता और अलंकरणप्रियता का प्रभाव खूब बढ़ गया था। उक्त दोनों सर्गों में कथाप्रबन्ध शिथिल, वर्णता की अतिशयता कहीं अधिक प्रखर है । एक-दो उदाहरण द्रष्टव्य है :---- ओ मेरे मानस के हास ! खिल सहस्रदल, सरस सुवास । + + + वेदने ! तु भली बनी! पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी । अरी वियोग समाधि अनोखी, तू क्या ठीक ठनी। अपने को, प्रिय को, जगती को देखू खिच तनी। ___ + + सखि, निरख नदी की धारा, ढलमल ढलमल चंचल-चंचल, झलमल-झलमल तारा । निर्मल जल अन्तस्तल भर के, उछल-उछल कर छल-छल कर के, थल-थल तर के कल-कल धर के बिखराती है वारा । + मुझे फूल मत मारो, मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो। + + निरख सखी ये खंजन आये, फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये ! फैला उनके तन का आनप, मन ने सुर सरसाये, घूमे वे उस ओर वहाँ ये हंस यहाँ उड़ छाये। करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुसकाये, फूल उठे हैं कमल, अधर से बन्धूक सुहाये ॥ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला दुःखिनी के माध्यम से न केवल विरह-कातर नारी हृदय का मर्मनुद चित्र अंकित किया है, अपितु युग-युग से उपेक्षित, शोषित परिवार और समाज के कल्याण की बलिवेदी पर समर्पित भारतीय नारी की नियति की गाथा गढ़ी है और गायी है, अत्यन्त कोमल, करुण, मांसल और मर्मस्पर्शी वाणी में। खड़ी बोली को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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