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________________ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-यात्रा डॉ. सुरेन्द्रनाथ दीक्षित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भारत की सामासिक संस्कृति के उद्गाता महाकवि हैं । भारतेन्दु ने पहले-पहल ब्रजभाषा की कविता के माध्यम से उस समय की हिन्दी को विषयगत विविधता तो प्रदान की, परन्तु कविता का माध्यम व्रजभाषा ही बनी रही और गद्य के लिए खड़ी बोली । अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिन्दी दो भाषाओं में विभाजित सी थी । भारतेन्दु के असमय अवसान के कुछ वर्षों बाद ही हिन्दी के क्षितिज पर जब महावीर प्रसाद द्विवेदी का अवतरण हुआ, उन्होंने खड़ी बोली के लिए संगठित आन्दोलन किया- 'गद्य और पद्य की भाषा केवल खड़ी बोली हो ।' उन्होंने स्वयं संस्कृत वर्णवृत्तों में खड़ी बोली में अनुकान्त कविताएँ कीं । पुरातनपन्थी ब्रजभाषा समर्थकों ने इसका जमकर विरोध किया । पर, लौहपुरुष द्विवेदीजी 'सरस्वती' की माध्यम से हिन्दी कविता के माध्यम के रूप में खड़ी बोली को दृढ़ता से स्थापित कर सके । इसी पृष्ठभूमि में सन् १८८६ की अगस्त में महाकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव (झाँसी) के अतिसम्पन्न वैश्य परिवार में हुआ। पिता श्री रामचरण कनकने घी के व्यापारी थे और सीताराम के चरणों के प्रबल अनुरागी । जब-तब व्रजभाषा की भक्तिभावपूर्ण कविता भी करते । वैष्णव परिवार में 'मानस' का पारायण होता । किशोर होने पर स्वयं मैथिलीशरणजी 'मानस' का साप्ताहिक पारायण करते। उसी अल्पवय में गुप्तजी ने एक छोटी सी कविता (छप्पय ) अपने पिताश्री की काव्य-पुस्तिका में स्वयं रचकर लिख दी । पिता ने लख लिया - 'भावी महाकवि हिन्दी का जन्म ले रहा है ।' बस घर पर ही हिन्दी और संस्कृत की शिक्षा का प्रबन्ध हुआ और सहज भाव से काव्य-रचना की, साहित्य विद्या की भी शिक्षा का सूत्रपात हुआ। वह बीज वृक्ष ही कुछ वर्षों में पल्लवित, पुष्पित हो, सारे हिन्दी जगत् को अपने काव्य-सौरम से आप्यायित और अनुप्रेरित करने लगा । यों काव्य-रचना का 'ककहरा' तो गुप्तजी ने व्रजभाषा से ही शुरू किया । तब कलकत्ता से प्रकाशित 'वैश्योपकार' में आपके दोहे, चौपाई और छप्पय तथा अन्योक्तियाँ जब-तब छपा करते । खड़ी बोली की पहली कविता कानपुर से प्रकाशित 'मोहिनी' पत्रिका में छपी । वही कविता 'सरस्वती' में भी छपी विलम्ब से और सुधर करके । तभी से गुप्तजी आचार्य द्विवेदीजी के सम्पर्क में आये और उन्हें उनका अनुशासन, प्रोत्साहन और दिशा निर्देशन भी प्राप्त होता रहा, जिसने हिन्दी का ऐसा हितसंवर्द्धन किया कि कुछ ही वर्षों में वे रचनाओं की प्रचुरता, विषय की विविधता, शैली के वैलक्षण्य, काव्यरूपों की बहुरंगिता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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