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________________ प्राचीन भारतीय जैन समाज में नारी शिक्षा 155 भिक्षुणी का उपाध्याय एवं पाँच वर्षों का उपसम्पन्न भिक्षु साठ वर्षों की उपसम्पन्न भिक्षुणी का आचार्य हो सकता था'४ । सम्भवतः इसका कारण था, प्राचीन भारतीय समाज द्वारा स्त्रियों पर सारी अयोग्यताएँ थोप देना । यथा : नारियों में चार प्रकार की अयोग्यताएं होती हैं—वे तुच्छ हैं, घमण्डी हैं, उनके ज्ञान के अंग सरल हैं, वे चञ्चल दिमाग की होती हैं और कमजोर होती हैं ।१५ भूदेव सूरि के अनुसार एक बुद्धिमान यह समझ सकता है कि गंगा में कितनी रेत है, महासागर में कितना पानी है, विशाल पर्वत का परिमाण कितना है ? किन्तु वह एक स्त्री को भली-भांति नहीं समझ सकता।६ सम्भवतः इन्हीं कारणों से जैनधर्म का एक सम्प्रदाय नारी को मोक्ष के लिए अयोग्य मानता है । अब कुछ लोग यह कहना चाहते हैं कि संघ में ब्रह्मचर्य की अटूट साधना के लिए पुरुष वर्ग ही निभ सकता था, नारी वर्ग नहीं। कारण ---यदि पुरुष की इच्छा न हो तो उसे ब्रह्मचर्य से च्युत करना सम्भव नहीं । जबकि ब्रह्मचर्य से रहने की तीव्र इच्छा रहने पर भी नारी को उससे सहज में ही च्युत किया जा सकता है ।१७ इस कोटि के विद्वान् स्त्री के निर्बल पक्ष को ही देखते हैं। सम्भवतः इस समय वे उत्तराध्ययन की राजीमति जैसी स्त्रियों को भूल जाना चाहते हैं, जिसे निर्वस्त्रावस्था में देखकर साधनारत रथनेमि हृदय डोल जाता है। राजमति की फटकार से उसके होश ठिकाने आते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण जैन वाङ्मय में भरे पड़े हैं, जब नारी ने पुरुषों का मार्गदर्शन किया। वस्तुतः तत्कालीन नारी की अवस्था को आधुनिक नारी को ध्यान में रखकर समझना टेढ़ी खीर है । फिर भी इतना स्पष्ट है कि नारी को अयोग्य मानने के लिए चञ्चला, दुर्बला आदि कहना पुरुष प्रधान समाज के बहाने हैं। समाज में यदि दुश्चरित्र स्त्रियाँ थीं तो दुश्चरित्र साधु भी थे । ऐसी स्थिति में मात्र नारी पर सारी अयोग्यताएँ थोपना तत्कालीन समाज की आवश्यकता थी। जिसपर आवरण डालना अब सम्भव नहीं। १४. व्यवहार भाष्य ७/१९-२० । १५. एच. आर० कपडिया, जैन सिस्टम ऑव एडुकेशन, पृ० २३९ । १६. बी० ए० सांगव, जैन कम्यूनिटी, वाँबे पोपुलर प्रकाशन, १९८० ई०, पृ० १६८ । १७. डा० कोमलचन्द्र जैन, बौद्ध एवं जैन आगमों में नारी जीवन, पृ० १७६-७७ ।। १८. साध्वी चनना, उत्तराध्ययन सूत्र, आगरा, १९७२, बारहवाँ अध्ययन । १९. डा० छगनलाल शास्त्री, समराइच्चकहा, बीकानेर, १९७६ ई०, प्रस्तावना पृ० १२-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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