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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 एक सघन वृक्ष देखा । इन छहों का बाह्य वर्ण भी कृष्ण, नील आदि रूप था, साथ ही अन्तरंग कषाय योग प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न थी । उस फलयुक्त वृक्ष को देखकर -- प्रथम कृष्णलेश्या वाला व्यक्ति विचार करता है कि मुझे इस वृक्ष के फलों से अपनी क्षुधा शान्त करना है, अतः इसके फल प्राप्ति के लिए इस वृक्ष को जड़ से ही उखाड़कर इसके फल खाऊँगा । दूसरा नीललेश्या वाला सोचता है- फलप्राप्ति के लिए समूचे वृक्ष को उखाड़ने की क्या जरूरत ? इसका मात्र स्कन्ध ( तना ) काटकर ही फल प्राप्त करके क्षुधा शान्त कर लेंगे। तीसरा कापोतलेश्या वाला व्यक्ति सोचता है कि इस वृक्ष की बड़ी डाल ( शाखा ) काटकर फल खाऊँगा । चौथा पीतलेश्या वाला व्यक्ति छोटी-छोटी टहनियों (शाखाओं ) को काटकर फल खाने की इच्छा रखता है । पंचम लेश्या वाला ( पद्म लेश्या ) व्यक्ति वृक्ष के मात्र सीधे फलों का ही तोड़कर खाने की इच्छा रखता है । छठा शुक्ललेश्या वाला पथिक विचार करता है कि जमीन पर टूटकर गिरे हुए फलों को ही खाऊँगा । इस प्रकार मनपूर्वक जो वचन होता हैं, वह क्रम से उन लेश्याओं का कार्य होता है । इस उदाहरण में प्रथम पथिक से लेकर छठे तक के सभी पथिकों की मानसिक परिणामों की स्थिति उत्तरोत्तर विशुद्ध है । सभी पथिक फल तो खाना चाहते हैं, किन्तु उनकी प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है । इसी प्रकार कषायों के तर-तम भाव ही लेश्या के अनेक भेदों का जनक होता है। इस उदाहरण द्वारा लेश्याओं का स्पष्ट रूप ज्ञात हो जाता है और यह मात्र परिणामों की तरतमता दिखलाता है । 150 जीवों में लेश्या का सद्भाव - तिर्यञ्चों और मनुष्यों में लेश्याओं का इस प्रकार सद्भाव होता है -- एकेन्द्रिय; विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रियों में कापोत नील और कृष्ण - ये तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं । असंख्यात आयु वाले भोगभूमि के जीवों में तेज, शुक्ल और पद्म ये तीन लेश्याएँ होती हैं। शेष कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय संज्ञी तिर्यञ्चों और मनुष्यों में छहों लेश्याएँ होती हैं । यहाँ पर भी किन्हीं जीवों के द्रव्यलेश्या अपने आयुप्रमाण निश्चित हैं, किन्तु सभी जीवों की भाव लेश्या अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तन करने वाली होती हैं, क्योंकि कषायों की हानि - बुद्धि से उनकी हानि वृद्धि जानना चाहिये । देवों में भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क को जघन्यतेजोलेश्या, सौधर्म और ईशान में मध्यम तेजोलेश्या, सानत्कुमार माहेन्द्र इनमें उत्कृष्टतेजो लेश्या और जघन्यपद्यलेश्या, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र - इन छहों में मध्यमपद्मलेश्या, शतार और सहस्त्रार - इन दो में उत्कृष्ट पद्म तथा जघन्यशुक्ललेश्या आनत, प्राणत, आरण और अच्युत सहित नवकों में अर्थात् इन तेरहों में मध्यमशुक्ललेश्या, नवअनुदिश और पाँच अनुत्तर इन चौदह विमानों में परम ( सर्वोत्कृष्ट ) शुक्ललेश्या होती है । * नरक पृथ्वियों में लेश्याओं का विधान इस प्रकार है- रत्नप्रभा, शर्करप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धर्मप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा ये सात नरक की पृथ्वियाँ हैं । 3 १. एइंदियवियलिदिय असण्णिणो तिण्णि होंति असुहाओ । संखादीहाऊणं विणि सुहा छप्पि सेसाणं || मूलाचारसवृत्ति १२ / ९६ । २. मूलाचारवृत्ति १२ / ९४-९५ । ३. मूलाचार १२ / ९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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