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________________ जैन धर्म-दर्शन में लेश्या : एक शास्त्रीय विवेचन १. कृष्ण - - जो रागी, द्वेषी, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ से युक्त, निर्दय, कलहप्रिय, मद्य-मांस के सेवन में आसक्त, दुष्ट हो तथा जो किसी के वश का न हो आदि ये सब कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं । २. नील - जो बहुत निद्रालु, घमण्डी, मायावी, ठग, कायर, पंचेन्द्रिय विषय लम्पटी, अनेक प्रकार के परिग्रह में आसक्त अति चपल हो तथा कार्यनिष्ठा से रहित जीव नील लेश्या युक्त होते हैं । ३. कपोत लेश्या -- जो पर की निन्दा, आत्मप्रशंसा से प्रसन्न होता है, हानि-लाभ को नहीं देखता, लड़ाई होने पर मरने-मारने को तैयार रहता है, दूसरों को अच्छा न देख सकता हो, अविश्वासी, बहुत डर, शोक एवं ईर्ष्या करने वाला जीव कपोत लेश्या वाला है । ४. तेजो ( पीत ) - जो अपने कर्तव्य-अकर्तव्य तथा सेव्य असेव्य को जानता है, सबको समान रूप से देखता है, दया और दान में प्रीति रखता है, ज्ञानी तथा मृदुस्वभावी है, दृढ़ता-मित्रता - सत्यवादिता तथा स्वकार्यपटुता आदि गुणों से समन्वित जीव तेजो या पीत लेश्या से युक्त होता है । 149 ५. पद्म - जो त्याग और क्षमागुणों से युक्त भद्र परिणामी, सरल स्वभावी, शुभ कार्य में उद्यमी, कष्ट तथा अनिष्ट उपद्रवों को सहने वाला, मुनि और गुरुजनों की पूजा में प्रीति रखने वाला जीव पद्म लेश्या वाला होता है । ६. शुक्ल -- जो पक्षपात ( माया ) और निदान से रहित, सबमें समान भाव रखने वाला, इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष रहित, पाप कार्यों से उदासीन, श्रेयोमार्ग में रुचि वाला, परनिन्दा रहित, पुत्र, मित्र और स्त्री में रागरहित -- ये सब शुक्ल लेश्या से समन्वित जीब के लक्षण हैं । ये छहों लेश्याएँ यथासम्भव सभी सम्भव सभी संसारी जीवों में पायी जाती हैं । प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर दशम सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति से होने वाली लेश्याएँ हैं तथा ग्यारहवें उपशान्त मोह, बारहवें क्षीणमोह तथा तेरहवें संयोगकेवली - इन गुणस्थानों में कषायों का अभाव हो जाने पर भी योग विद्यमान होने से इनसे शुक्ललेश्या का सद्भाव होता है। अयोगकेवली नामक चौदहवाँ गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान् लेश्यारहित है, क्योंकि इनमें योग का भी अभाव होता है ' । लेश्या वृक्ष का उदाहरण - गोम्मटसार' में वृक्ष से फलप्राप्ति के एक उदाहरण द्वारा छह लेश्याओं को छह व्यक्तियों के मनोभावों की दशाओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । जिसका चित्र प्रायः सभी जैन मन्दिरों की दीवारों पर भी देखा जाता है; इस प्रकार है कृष्ण आदि एक-एक लेश्या वाले छः पथिक वन में मार्ग पिपासा, पीड़ित, थके-हारे उन पथिकों ने उस वन के १. आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ५०४ । २. गोम्मटसार जीवकाण्ड ५०७ - ५०८ । Jain Education International भूल गये । क्षुधा, मध्य फलों से युक्त लहलहाता हुआ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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