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________________ जैन धर्म-दर्शन में लेश्या : एक शास्त्रीय विवेचन इनमें क्रमशः रत्नप्रभा नरक में जघन्य कापोतलेश्या, द्वितीयाशर्करा में मध्यम कापोतलेश्या, तृतीय बालुकाप्रभा के ऊपरी भाग में उत्कृष्ट कापोतलेश्या और निम्न भाग में जघन्य नीललेश्या, चतुर्थ पंकप्रभा में मध्यम नीललेश्या, पंचम धूमप्रभा के ऊपरी भाग में उत्कृष्ट नोललेश्या तथा अधोभाग में जघन्य कृष्णलेश्या, षष्ठ तमप्रभा में मध्यम कृष्णलेश्या और सप्तम महातमप्रभा में उत्कृष्ट कृष्णलेश्या होती है । " इस तरह विभिन्न लेश्याओं का विभिन्न गतियों और जीवों में तरतमता से सद्भाव पाया जाता है । किन्तु मरण समय में निम्नलिखित प्रकार से लेश्याएँ सम्भव होती हैं 51 151 प्रथम पृथ्वी से छठी तक के असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मनुष्यों में अपनी अपनी पृथ्वी योग्य लेश्याओं के साथ उत्पन्न होते हैं । अतः उनमें कृष्ण, नील, कापोत लेश्याएँ पायी जाती हैं। इसी प्रकार देवगति से असंयत सम्यग्दृष्टि देव मरकर अपनी-अपनी पीत, पद्म और शुक् लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देव, तिर्यञ्च और मनुष्यों में उत्पन्न होते समय नष्ट लेश्या अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व लेश्या छोड़कर मनुष्यों और तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से परिणत हो जाते हैं । २ हम देखते हैं कि कषायों के प्रतिफल स्वरूप कर्मबंध होता है, तदनुसार जीव पुण्य और पाप रूप फल भोगता है । जबतक कषाय है, तबतक संसार वृद्धि होती रहती है । शुभ लेश्याओं से संसार निवृत्ति का संयोग बैठता है। जब व्रत, संयम तप, धर्म आदि मोक्षानुकूल पुरुषार्थ जीव द्वारा होता है, तभी आत्मा के कर्म-मल को हटाया जाता है । श्या-विशुद्धि का उपक्रम - भगवती आराधना में लेश्याओं की विशुद्धि का उपक्रम बतलाते हुए कहा है कि परिग्रह के त्याग से लेश्या में विशुद्धि आती है । परिणामों की विशुद्धि होने से लेश्या की विशुद्धि होती है । जिसकी कषाय मन्द होती है, उसके परिणामों में विशुद्धि होती है । जो बाह्य परिग्रह का त्याग करता है, उसकी कषाय मन्द होती है, जिसकी कषाय तीव्र होती वही सब परिग्रह रूप पाप को स्वीकार करता है । जैसे बाहर में तुष ( छिलका ) रहते हुए चावल की आभ्यन्तर शुद्धि सम्भव नहीं है, वैसे ही परिग्रही जीव के लेश्या की विशुद्धि सम्भव नहीं है । अन्तरंग में कषाय की मन्दता होने पर नियम से बाह्य परिग्रह का त्याग होता है तथा आभ्यन्तर में मलीनता होने पर भी जीव बाह्य परिग्रहों को ग्रहण करता है । जैसे ईंधन से आग बढ़ती है और ईंधन के अभाव में बुझ जाती है-- वैसे ही परिग्रह से कषाय बढ़ती है और परिग्रह के अभाव में ही मन्द हो जाती है । इस प्रकार लेश्या में निरन्तर विशुद्धि होती जाती है लेश्याओं द्वारा भावनाओं एवं विचार तरंगों का जितना मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जायेगा, उतना ही इनकी महत्ता सिद्ध होगी, क्योंकि मानसिक विचारों की श्रेणियों को ही लेश्या कहा गया है। । १. मूलाचार वृत्ति १२/९३ । २. धवला २ / १ १/५११, ६५६ । ३. भगवती आराधना गाथा - १९०४ - १९०६, १९११, १९०९, १९०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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