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जैन धर्म-दर्शन में लेश्या : एक शास्त्रीय विवेचन
डॉo फूलचन्द जैन प्रेमी
लेश्या का स्वरूप --- विश्व के सभी धर्मों में लेश्या की अवधारणा जैनधर्म की अपनी मौलिक और विशिष्ट अवधारणा है जिसमें जीवों के मनोभावों का अति सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया गया है । वस्तुतः जैन तत्वज्ञान का यह एक अपना विशेष मनोवैज्ञानिक पहलू है जिसका विवेचन विपुल जैन साहित्य के अनेक प्रमुख ग्रन्थों में किया गया है । लेश्या शब्द का अर्थ है आणविक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया' । कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय रूप योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । लेश्या के इस लक्षण में मात्र कषाय और मात्र योग को लेश्या नहीं कहा अपितु कषायानुबिद्ध योग प्रवृत्ति को ही लेश्या कहा है । जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती है अथवा जिसके द्वारा जीव पुण्यपाप से अपने को लिप्त करता है. उनके अधीन करता है उसे लेश्या कहते हैं * ।
जिस प्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेरू मिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी
आत्मा और
जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भाव रूप लेप के द्वारा जो किया जाता है उसे लेश्या कहते हैं । इसीलिए जो सम्बन्ध करने वाली होती है उसे लेश्या कहा गया है आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है और वे हैं । इसीलिए जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहा जाता है । अच्छे कर्म- पुद्गल अच्छे चितन में और अशुभ पुद्गल अशुभ चिंतन में सहायक बनते हैं ।
आत्मा का परिणाम लिप्त प्रवृत्ति अर्थात् कर्म का पौद्गलिक होते हैं अतः चितन को प्रभावित करते
।
वस्तुतः कर्म पुद्गल उसके
* अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
१. लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या - अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया । —उत्तराध्ययन बृहद्वृत्तिपत्र ६५० ।
२. ( क ) जोगप उत्ती लेस्सा कसायउदयानुरंजिया होई गो० जीवकाण्ड ४९० । ( ख ) कषायोदयरज्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या सर्वार्थसिद्धि २/३ |
३. लिम्पतीति लेश्या कर्मभिरात्मानमित्यध्याहारापेक्षित्त्वात् - धवला २ / १, १,४५० १५० ।
४. लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णिउउ पुष्ण पावं च ।
जीवोति होई लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खाया | पंचसंग्रह १ / १४२, गो० जी० ४८८ ।
५. जह- गेरुवेण कुड्डी लिप्पइ लेवेण आम पिट्टेण ।
तह परिणामो लिप्पर सुहासुह यत्ति लेब्वेण || पंचसंग्रह १४३ |
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