SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म-दर्शन में लेश्या : एक शास्त्रीय विवेचन 147 लेश्या के दो भेद हैं - द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या' । वर्ण नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ शरीर का वर्ण अर्थात् शरीर के वर्ण और आणविक आभा को द्रव्यलेश्या तथा मोहनीयकर्म के उदय या क्षयोपशम या अपशम या क्षय से जो जीव के प्रदेशों की चंचलता होती है उसे भावलेश्या कहते हैं । अर्थात् जीव के परिणामों और प्रदेशों का चंचल होना भावलेश्या है । वस्तुतः परिणामों का चंचल होना कषाय है और प्रदेशों का चंचल होना योग है । इसी से योग और कषाय से भावलेश्या होती है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग से जीव के जो तीव्रतम आदि भाव होते हैं वह भी भावलेश्या है। सामान्य रूप में आत्मिक विचारों को भावलेश्या तथा उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्यलेश्या कहते हैं। द्रव्यलेश्या के छः भेद हैं -कृष्ण, नील, कापोत, तेजस ( पीत ), पद्म और शुक्ल । इनमें एक-एक भेद अपने-अपने उत्तर भेदों द्वारा अनेक रूप हैं । सामान्य से ये ही भेद भावलेश्या के हैं। किन्तु लेश्याओं के असंख्यात लोक-प्रमाण भेद हैं। वर्णों ( रंगों ) के अनुसार जिस प्रकार विविध तारतम्य पाया जाता है उसी प्रकार भावों के तारतम्य से भावलेश्या के भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं। द्रव्य और भाव दोनों रूप छहों लेश्याओं में प्रथम तीन लेश्यायें संक्लिष्ट होने से दुर्गति की ओर ले जाने वाली हैं तथा बाद की तीन लेश्यायें असंक्लिष्ट होने से सुगति की ओर ले जाने वाली हैं। लेश्याओं का सम्बन्ध शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों से है। अप्रशस्त और प्रशस्त इन द्विविध मनोभावों के उनकी तारतम्यता के आधार पर छह भेद बताये गये हैं। अप्रशस्त मनोभाव १. कृष्ण -तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाव ( अशुद्धतम ) । २. नील --तीव्र अप्रशस्त मनोभाव ( अशुद्धतर )। ३. कापोत-अप्रशस्त मनोभाव ( अशुद्ध )। प्रशस्त मनोभाव ४. तेजस्-प्रशस्त मनोभाव ( शुद्ध ) । ५. पद्म-- तीव्र प्रशस्त मनोभाव ( शुद्धतर ) । ६. शुक्ल-तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव ( शुद्धतम ) । १. लेश्या द्रव्यभावभेदाद् द्वेधा-गोम्मटसार जी, जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका ४८९ । २. वण्णोदयसंपादिद सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । मोहुदयखओवसमोवसखयज जीवफंदणं भावो । गो० जीवकाण्ड ५३६ । ३. मूलाचारवृत्ति १२/९६, सर्वार्थसिद्धि २/६, पृ० ११९ । ४. सा सोढा किण्हादी अणेय सभेयेण-गो० जी० ४९४ । ५. उत्तराध्ययन ३४/३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy