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जैन शिक्षा दर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
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प्रति रागात्मक आस्था रखता है, यह आनन्द की प्राप्ति चाहता है और आनन्द प्राप्ति के माध्यम से स्वर्गोपलब्धि इसकी सर्वोच्च परिकल्पना है ।
ब्राह्मण धर्म ने सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया । इसने ब्राह्मण को समाज का शिरमौर बना दिया । इतना ही नहीं, सत्कर्म का भी अधिकार मात्र ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को ही उपलब्ध कराया । इसने शूद्रों के धर्मादि-कार्यों पर रोक लगा दी । नारियों के साथ भी अवमानना किया गया। इससे समाज कई भागों में विभक्त हो गया और ऊँच-नीच तथा छूआछूत जैसी महामारी फैल गयी। लेकिन, श्रमण धर्म में शूद्रों को भी श्रमण एवं श्रावक बनने का अधिकार प्राप्त है । इसमें अहिंसा एवं सदाचरण करने वाले सभी व्यक्तियों को समान दृष्टि से देखा जाता हैं ।
अतः उपर्युक्त तथ्यों के अवलोकन से यह पुष्ट हो जाता है कि श्रमण धर्म, ब्राह्मण धर्म
से श्रेष्ठतर है
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