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________________ जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व 139 सर्वप्रथम वैदिककालीन ऋषियों के लिये ऋग्वेद में वैखानस शब्द का प्रयोग हुआ है'। वानप्रस्थी ही बाद में चलकर संन्यासी हो जाता है तथा इन्हें ब्रह्मचर्य, इंद्रिय-निग्रह, भोजननियम आदि का पालन करना पड़ता था तथा ब्रह्मज्ञान के लिए सदा प्रयलशील रहना पड़ता था। 'आपस्तम्बधर्म सूत्र के अनुसार फूल, फल, वर्ण और तृण से आरंभ कर अप, वायु और आकाश के सहारे वानप्रस्थी को जीवित रहने का अभ्यास करना पड़ता था । 'समराइच्च कहा' में उल्लिखित तपस्वीजनों के आचरण एवं रहन-सहन के इसके समक्ष होने से इसकी पुष्टि हो जाती है कि वानप्रस्थी का आचरण भी तपस्वीजनों के सदृश था । वैदिक धर्माचरण के अनुसार हरिभद्रसूरि ने तापसों एवं संन्यासियों के लिए सर्वतोमुखी सद्गुणों से ओत-प्रोत होना बतलाया है। संन्यासियों के लिए स्त्री-दर्शन करना तथा अलोक वचन बोलना निषिद्ध था। मनु एवं गौतम स्मृतियों में संन्यासी को ब्रह्मचारी होना, सदैव ध्यान एवं आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति आकर्षण रखना और इन्द्रिय सुख एवं आनन्दप्रद वस्तुओं से दूर रहना आवश्यक बतलाया गया है। इसके साथ-साथ अनाथ एवं दुर्बल जीवों पर दया करना, शत्रु-मित्र में समान भाव रखना मणि-मुक्ता को तृणवत् समझना, जीवों को कष्ट नहीं देना एवं असत्य भाषण से दूर रहना, सत्य की अप्रवंचना, क्रोध-हीनता, विनीतता, पवित्रता, अच्छे-बुरे का भेद जनाना, मन की स्थिरता, मन-नियत्रण, इन्द्रिय-निग्रह तथा आत्मज्ञान आदि गुणों से संन्यासियों को युक्त बतलाया गया। तत्कालीन साधु-संन्यासी उपर्युक्त गुणों को अपने जीवन के साथ चरितार्थ करने के लिए सन्ध्योपासना करते तथा कुसुम, समिधा आदि से यज्ञ, हवन आदि किया करते थे। मनु एवं याज्ञवल्क्य के अनुसार संन्यासी को प्राणायाम तथा अन्य योगों द्वारा मन पवित्र करना बतलाया गया है । तत्कालीन तपाचरण करने वाले वैदिक साधुसंन्यासियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: प्रथम-साधारण तापस द्वितीय-कुलपति । प्रथम एवं द्वितीय में भेद सिर्फ श्रेष्ठता का था। जो अधिक श्रेष्ठ तथा यतिधर्म पालन में निपुण एवं दिव्य ज्ञान से युक्त होते थे, उन्हें कुलपति एवं उनके अनुयायी या पथगामी को साधारण तापस के रूप जाना जाता था। 'समराइच्चकहा' के अनुसार वैदिक तपस्वियों में १. पी० वी० काणे-धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४८९ । २. - भाग १, पृ० ४८९ । ३. आपस्तम्ब धर्मसूत्र-२।९।२२ । ४. समराइच्चकहा ७, पृ० ६६३ । ५. मनुस्मृति ६।४०, ४७-४८; याज्ञवल्क्य स्मृति ३।६१' गौतम धर्मसूत्र ३।२३ । ६. समराइच्चकहा ५, पृ० ४२४; ७, पृ० ६८४-१५ । ७. मनुस्मृति ६७०-७५; याज्ञवल्क्य स्मृति ३१६२, ६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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