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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
है । वर्ण-व्यवस्था की तरह आश्रम-व्यवस्था भी श्रमण-धर्म को स्वीकार्य नहीं है । ब्राह्मण धर्म में मनुष्य को चतुर्थ सोपान में संन्यास ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित करते हुए मिलता है, परन्तु शेष तीनों सोपान में अलग-अलग कर्मों का सम्पादन आवश्यक माना गया है। परन्तु श्रमण धर्म में किशोर और किशोरियों को भी श्रमण धर्म के लिए उत्प्रेरित किया गया है। मोक्ष-प्राप्ति के विषय में श्रमण धर्म का वैदिक धर्म से भिन्न मत पाया जाता है। यज्ञ की ओर हिंसा और दानजीवी ब्राह्मण जाति के प्रति इसकी आस्था नहीं रही। श्रमण वर्ग के लिए अमिश्रित और परपाकित भोजन ग्रहण करने की व्यवस्था है । उसे पूर्णतः मधुकरी वृत्ति से जीवन-यापन करना है, जिसका वर्णन दसर्वआलियं की द्रुम पुफ्फिया में द्रष्टव्य है। यह धर्म मोक्ष (कैवल्य) को तप सम्भव मानता है। कैवल्यप्राप्त प्राणी पुनः जन्म-ग्रहण नहीं करता । कैवल्य-प्राप्ति हेतु आचार को ही कारण माना गया है ।
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रमणधर्म निवृत्तिमूलक धर्म है, जो मूलतः तप, अहिंसा और आचार-संयम पर आधारित है। इसके सम्बन्ध में निम्नोद्धृत कथन इस सत्य की पुष्टि करता है
"धम्मो मंगल मुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो' ॥"
वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म) आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'समराइच्चकहा' में जैन धर्म का विस्तृत वर्णन किया है, लेकिन प्रमुख कथा के साथ अनेक उपकथाओं के रोचक सामंजस्य द्वारा आंशिक रूप से, परन्तु सस्पष्टवैदिक धर्म का यत्र-तत्र उल्लेख भी किया है। उन्होंने वैदिक तापस, तापसी एवं कुलपति की प्रकृति एवं कार्यों के चित्रांकन । द्वारा वैदिक धर्म पर काफी प्रकाश डाला है। तत्कालीन वैदिक तापस अधिकतर आश्रम बनाकर जंगलों में रहते थे तथा वहीं शान्तिपूर्ण जीवन बिताते हए पूजा-पाठ एवं ईश्वरोपासना किया करते थे। कुछ तपस्वी विन्ध्यारण्यवासी के रूप में भी वणित हैं, जो गिरिकन्दराओं में तपस्या करते तथा जंगली फलाहार कर अपनी जीविका चलाते थे। मुनि-सेवित धर्म को परलोक का बन्धु माना जाता था। यही कारण है कि तपोवन में संयम-नियम करने वाले तपस्वी आदर की दृष्टि से देखे जाते थे । ये तपस्वी जंगल एवं झाड़ियों में अत्यन्त एकान्त अबाधित भाव से पूजा, आराधना, यज्ञ, हवन एवं व्रत आदि के द्वारा तपाचरण करते थे। अतः इन लोगों को 'तपोवनवासी' से भी संबोधित किया जाता था। १. दशवैकालिक-१-१। २. समराइच्चकहा-५, पृ०४१५, ४१८, ४२२ ।
" " -८, पृ० ७९०, ८०० " " -१, पृव २८; २, पृ० ८४, ५, ३९२, ७, पृ० ६६४ । ,, , -१, पृ० १२, १४, १६, १७, २३, २४, ४०, ५, पृ० ४२३.
२४-४७; ७, बृ० ६६२ ६३-६४-६१ ।
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