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________________ जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व 137 पाया है। 'उद्धरेदात्मानम्' अर्थात् मनुष्य स्वयं अपना उद्धार करे। जैनधर्म भी यही कहता है । किन्तु आत्मा कल्याण के लिए श्रमणत्व या श्रावकत्व का पालन आवश्यक बतलाया गया है । यह अन्य देवी-देवताओं एवं ईश्वर का अवलम्बन छोड़कर आत्मनिर्भरता की शिक्षा प्रदान करता है। नवीन विज्ञान के अनुसार भी प्रकृति-जगत् एक स्वतन्त्र समष्टि है, जिसकी प्रत्येक घटना अटूट नियमों के अनुसार घटती रहती है। इन नियमों में कोई बाहरी शक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकती । ईश्वर को सृष्टि का स्रष्टा मानना तो प्रकृति को अखण्डता और स्वतन्त्रता में अविश्वास करना है। हिन्दू-दर्शन की भाँति जनदर्शन ने भी मोक्ष में विश्वास प्रकट किया है । जैन-विचारधारा के अनुसार जब समुचित साधना से सम्पूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं और जीव सर्वज्ञता की स्थिति में पहुँच जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है और मृत्यु के पश्चात् लोकाकाश में पहुँच कर सदा के लिए शान्ति और आनन्द की अवस्था में स्थित हो जाता है,' अर्थात् जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से मुक्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि तप, संयम, नियम, व्रत आदि के द्वारा ही भवोपनाही कर्मों का नाश करके, केवल ज्ञान को प्राप्ति और केवल ज्ञान से ही इस भौतिक देह-पंजर का त्याग करके परमपद (मोक्ष) को प्राप्त करना ही श्रमण धर्म का चरम-लक्ष्य माना गया है। जैनियों का मोक्ष-सिद्धान्त बौद्ध निर्वाण के समान अभावात्मक नहीं, वेदान्त के ब्रह्म के समान अद्वैत रूप नहीं, सांख्य के पुरुष के समान निष्क्रिय तथा परावलम्बी नहीं, नैयायिकों के समान अचेतन रूप नहीं, प्रत्युत् यह भावात्मक, चैतन्ययुक्त, स्वावलम्बी, स्वतन्त्र, नित्य तथा अनन्त गुणों से युक्त आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है । आचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा है "अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणतं ।। अब्बुच्छिण्णां च सुहं सुद्धृवओगप्पसिद्धाणं ॥२ श्रमण धर्म में काफी विशेषताएं हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह धर्म वर्णव्यवस्था पर विश्वास नहीं करता। कुछ आचार्य इसको क्षत्रिय-ब्राह्मण संघर्ष का परिणाम मानते हैं। कुछ विद्वान् इस वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय को सर्वोपरि स्थान देते हैं। इस धर्म में आचार संहिता पर काफी बल दिया गया है । पवित्र मन, सभी जीवों के प्रति समव्यवहार और तप इसकी प्रमुख तीन विशेषताएँ सामने आती हैं, अर्थात् यह धर्म विनय-मूलक है । कुछ विद्वान् इस धर्म को वैदिक धर्म की घोर हिंसा की प्रतिक्रिया में उत्पन्न मानते हैं । इस धर्म में अहिंसा को प्राण माना गया है । श्रमण धर्म तप पर काफी बल देता है । ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का वर्णन ऋग्वेद, विष्णुपुराण और भागवत पुराण में पाया जाता है । यहाँ इन्हें महायोगी योगेश्वर और योग तथा तप मार्ग का प्रवर्तक कहा गया है। यह तप काफी कठिन-कठोर रहा होगा, जिसकी हल्की सी झाँकी "दशवकालीय" के 'खुड़िइयारकहा' और 'महायारकहा' में मिलती १. भगवती सूत्र-७।१।२२५ । २. प्रवचनसार-१।१३ । ३. संस्कृति के चार अध्याय; पृ० ६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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