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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
श्रेष्ठ तथा आश्रम के आचार्य को कुलपति कहा जाता था'। शुभ मुहूर्त में कुलपति अपने आश्रम में तपस्वियों को दीक्षित करते थे। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ये तपस्वी कुलपति की सेवा करते हुए तप, व्रत, धर्म आदि का आचरण करते थे । अतः वे वनवासी, जो आश्रम में कुलपति की सेवा करते हुए तपाचरण करते थे, तापस, बालक, मुनि या मुनिकुमार के रूप में जाने जाते थे। कुलपतियों को तपस्वयों से लेकर साधारण गृहस्थ तक उन्हें वन्दना-पूजा के साथ सम्मान प्रदान करते थे । 'समराइच्च कहा' में कुलपति को ही ऋषि कहा गया है।
वैदिक धर्माचरण करनेवाली तापसी भी कुलपति के आश्रम में होती थी जो पुत्रजीवक माला गले में धारण करती, वल्कल वस्त्र पहनती तथा हाथ में कमण्डलु लिए रहती थी । तापसी कुलपति की अज्ञानुसार अपना जीवन बिताती तथा धर्माचरण को जीवन में सही उतारने के लिए तपाचरण से कृशगात कन्दमूल-फल आदि खाकर अपनी वृत्ति चलाती थी। 'समराइच्च कहा' के इन उल्लेखों का समर्थन वैदिक ग्रन्थों में मिलता है। कुछ लोग बिना गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुए सीधे वैखानस व्रत धारण कर लेते थे। इसी पद्धति को ध्यान में रखते हुए 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' में दुष्यन्त शकुन्तला के विषय में जिज्ञासा करते हैं कि क्या वह विवाह होने तक वैखानस व्रत का पालन करेगी अथवा यावज्जीवन ?
'समराइच्चकहा' में तापसों के भोजन एवं वस्त्र का भी वर्णन आया है। वैदिक धर्मावलम्बी (तापस) वल्कल वस्त्र पहनते, अपने शरीर में त्रिपुण्ड्र भस्म (हवन की राख) लगाते तथा कमण्डलु लिए रहते थे। 'बौधायन धर्मसूत्र' में वर्णन है कि संन्यासी सिर, दाढ़ी तथा शरीर के सभी अंगों के बाल बनाकर, तीन दंडो को एक में जोड़कर, जल छानने के लिए एक छोटा कपड़ा, एक कमण्डलु तथा एक जलपात्र साथ में रखकर पूजा किया करते थे । तापसी कन्दमूल फलादि खाते तथा मासपारण व्रत करते थे। मासपारण व्रत का अर्थ है कि एक माह तक उपवास रहकर मासान्त में भिक्षाटन के माध्यम से पारण करना। भिक्षाटन में यह भी नियम था कि प्रथम घर से प्राप्त भोजन का ही पारण आवश्यक था। अगर मास पारण के दिन भिक्षुक को प्रथम घर में पारण नहीं हुआ, तो उसे पारण के अगले माहतक
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१. समराइच्चकहा ५, पृ० ४१७ ।।
, , १-पृ० १४ । , , -पृ० १२, १४, १७, २६-४० । , , १-पृ० १६, १७, २१,२४, २६, ३१ ३३, ४१; ५, ४१४,
१८, ४७; ७, पृ०६६६,८९, ९० । ५. समराइच्चकहा-१पृ०१३; ५,पृ०४३६, ४३८; ६, पृ०५६६ :९, पृ९२०, ९२२ । ६. समराइच्चकहा-५, पृ०४१०-११,४२३-२४ । ७. अभिज्ञानशाकुंतलम् १। २७ । ८. समराइच्चकहा, पृ० १२; ५ पृ० ४१०, ४११, ४३३, ४२४ । ९, बौधायन धर्मशास्त्र २।१०।११-३० ।
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