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जैन शिक्षा दर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
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बताये गये हैं । उपर्युक्त सभी आचरण सम्बन्धी नियमों का अनुपालन अत्यन्त ही कठिन कार्य है । इसका अनुपालन साधारण व्यक्तियों से सम्भव नहीं है । फिर भी इसको सत्य चरितार्थ करते हुए लाखों-लाख जैन सम्प्रदायी दृष्टिगोचर होते हैं, अतः ये श्रमण अवश्यमेव आदरणीय एवं श्लाघनीय हैं ।
प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले को एक स्थान पर सर्वदा रहना निषिद्ध बतलाया गया है । उन्हें हमेशा घूमते रहना था । भ्रमण के क्रम में रास्ते में मिलने वाले लोगों को शिक्षा एवं प्रवचन से प्रभावित कर सदाचार भरना मुख्य कार्य बतलाया गया है । इसी भ्रमण को श्रवण-विहार से जाना जाता है । श्रवणाचार के अन्तर्गत ग्राम में एक रात्रि और शहर में पाँच रात्रि अकेले घूमने का विधान था । लेकिन वर्षाकाल में अनेक जीवों की उत्पत्ति को ध्यान में रखकर हिसा आदि से बचने के लिए उचित स्थान का चुनाव कर पूर्ण वर्षाकाल बिताते थे । 'आचारांग सूत्र' में बिहार करने के सन्दर्भ में बताया गया है कि भिक्षु या भिक्षुणी को जब मालूम हो जाये कि वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है एवं वर्षा के कारण विविध प्रकार के जीवों की सृष्टि हो चुकी है तथा मार्गों में अंकुर आदि के कारण गमनागमन दुष्कर हो गया है, तब वह किसी निर्दोष स्थान पर वर्षावास अर्थात् चातुर्मास करके रुक जाये, लेकिन जहाँ स्वाध्याय आदि की अनुकूलता न हो वहाँ न रहे । श्रमणाचार्य भी शिष्यों के साथ मासकल्प विहार करते तथा चैत्यों में विश्राम करते थे। जैनाचार में भी बतलाया गया है कि निर्ग्रन्थ श्रमण वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहते थे तथा शेष ऋतुओं में पदयात्रा करते हुए स्थान-स्थान पर घूमते रहते थे ।
श्रमणाचार के अन्तर्गत भोजन का प्रमुख आधार भिक्षा वृत्ति बतलाया गया है । भिक्षा वृत्ति से दिन में मात्र एक ही बार भोजन करने को व्यवस्था बतायी गयी है । भिक्षाटन के लिए प्रस्थान करने के पूर्व श्रमणों को अपने आचार्य से आज्ञा लेनी पड़ती थी । 'आचारांग ' में बतलाया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को आलाबु, काष्ठ व मिट्टी का पात्र रखना अकल्प्य है, उन्हें बहुमूल्य वस्त्र की तरह बहुमूल्य पात्र भी नहीं रखने का विधान था ' । श्रमणलोग श्वेतवस्त्र भी पहनते थे । 'समराइच्चकहा' में श्वेताम्बर श्रमण सम्प्रदाय का स्पष्ट वर्णन है । उन्हें श्वेतवस्त्रधारी बतलाया गया है । 'आवश्यक सूत्र' के उल्लेखों से स्पष्ट है कि श्रमण अपने
१. दशवैकालिक सूत्र, ६।८ |
२. समराइच्च कहा - ४, पृ० ३५३, ७, पृ० ७२७ ।
३. आचारांग सूत्र - २; १, ३ ।
४. समराइच्च कहा -२, पृ० १२०, ३, पृ० १८१, ५, पृ० ४८८ ९, ०९३८ ।
५. मोहनलाल मेहता --- जैनाचार्य, पृ० १७६ ।
६. समराइच्चकहा - ३, पृ० २२८, ७, पृ० ७७५ ।
७.
८. आचारांग सूत्र —–—२; १६ ।
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--४, पृ० ३४६, ३५३, ७, पृ० ६२४ ।
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