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________________ Vishali Institute Research Bulletin No. 6 त्याग, बुरे ध्यान से आचरित विरति गुणव्रत, प्रमाद से आचरित विरति गुणव्रत, पापकर्मोपदेश लक्षण विरति गुणव्रत, अनर्थ दण्ड विरति गुणव्रत, सावद्ययोग का परिवर्जन और निषद्य - योग का प्रतिसेवन रूप सामयिक शिक्षाव्रत और दिव्रत से ग्रहण किया हुआ दिशा के परिनाम का प्रतिदिन प्रमाणकरण, देशावकाशिक शिक्षाव्रत, आहार और सत्कार से रहित ब्रह्मचर्यव्रत का सेवन, व्यापार रहित पौषध शिक्षाव्रत का सेवन तथा न्यायपूर्वक अर्जित एवं कल्पनीय अन्न-पान आदि द्रव्यों का देश-काल- श्रद्धा सत्कार से युक्त तथा परमभक्ति से आत्मशुद्धि के लिए साधुओं को दान और अतिथि विभाग शिक्षाव्रत आदि सभी उत्तर गुणों के रूप में स्वीकार करना अनिवार्य था । 134 प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले मानवों को श्रमणचर्या के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता था । 'समराइच्चकहा' में श्रमणों के आचार सम्बन्धी कुछ नियमों का यत्र-तत्र प्रयोग किया गया है । उसको एकत्रित करने पर आचरित नियमों को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है - शत्रु-मित्र को समानभाव से देखना, प्रमाद से झूठा भाषण न देना, अदत्त वर्जना, मन-वचन और शरीर से ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना, वस्त्र पात्र आदि से प्रेम न रखना, रात्रि में भोजन न करना, विशुद्ध पिण्ड ग्रहण करना, संयोजन आदि पंच दोषरहित मित काल भोजन ग्रहण करना, पंच समित्व, त्रिगुप्तता, ईर्ष्या समित्यादि भावना, अनशन, प्रायश्चित, विनय आदि से बाह्य तथा आभ्यंतर तपविधान, मासादिक अनेक प्रतिमा, विचित्र द्रव्य आदि ग्रहण करना, स्नान न करना, भूमि शयन, केशलोच, निष्प्रति-कर्म शरारता, सर्वदा गुरु निर्देश पालन, भूख-प्यास आदि की सहन शक्ति दिव्यादि उत्सर्ग विजय, लब्ध-अलब्ध वृत्तिता आदि । अतः मन-वचन और शरीर से अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य का पालन हो इसके विधान का मूल है । तप-साधना में शरीर जर्जर हो जाता है । तप के मुख्यतया दो भेद हैंवाह्य और आभ्यान्तर | के बाह्य तप के छः प्रकार हैं, यथा-अनशन, अवमौदयं, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन एवं कायक्लेश । आभ्यंतर तप के भी छः प्रकार हैं, यथा- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत, स्वाध्याय, व्यूसर्ग और ध्यान । इन दोनों प्रकार के तपों की साधना श्रमणों के लिए आवश्यक मानी गयी है, क्योंकि तप बिना मनुष्य मानवमन में व्याप्त अनाचारिक भावनाओं से कभी भी मुक्ति नहीं पा सका है जब तक शरीर तप साधना से निर्जर नहीं हो जाता है, तब तक ब्रह्मचर्य धर्म के अनुपालन में कठिनाई आने की सम्भावना रहती है । इन दोनों प्रकार के तपों के अलावा 'दशवैकालिक सूत्र' में श्रमणों के लिए हिंसा, असत्य भाषण, चौरकर्म, सम्भोग, सम्पत्ति, रात्रि भोजत, क्षितिशरीरी - जीवोत्पीड़न, वानस्पतिक जोवोसीण, वर्जितवस्तु, गृहस्थ के पात्रों में भक्षण, पयंक प्रयोग, स्नान और अलंकार आदि वर्जित । १. समराइच्चकहा १, पृष्ठ ६२ । २. समराइच्च कहा - १, पृ० ६६-६७, ३, पृष्ठ १९७-९८ ६, पृष्ठ ५८५-८६ । ३. समराइच्चकहा –२, पृष्ठ १४०-४१, ४, पृष्ठ २८८; ८, पृष्ठ ७८०-९० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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