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________________ जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व 123 ३०-गुरु के शय्या संस्तारक को पैर से छूकर क्षमा माँगे बिना ही चले जाना। ३१-गुरुदेव की शय्या-संस्तारक पर खड़े होना, बैठना और सोना । ३२--गुरुदेव के आसन से उँचे आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना । ३३-गुरुदेव के आसन के बराबर आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना । इन तैतीस आशातनाओं का पालन करके अविनीत शिक्षार्थी अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं। दुराचारी शिष्य के बारे में तो यहां तक कहा गया है कि वे अपने आचार्य की आज्ञा पाकर हाथापाई भी कर बैठते थे। एक बार हरिकेशबल मुनि किसी ब्राह्मण के यज्ञवाटक में गये और भिक्षा की याचना की तो अपने गुरु का इशारा पाते ही खण्डिए (छात्रगण) मुनि को डंडों से, फलक से मारने-पीटने लगे जिससे उनके मुंह से खून निकलने लगा था। इसी प्रकार इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदत्त के बाइस पुत्र थे। जब राजा ने अपने पुत्रों को आचार्य के पास पढ़ने के लिए भेजा तो उन्होंने कुछ नहीं पढ़ा। आचार्य यदि कुछ कहते तो वे आचार्य को मारतेपीटते और दुर्वचन बोलते। यदि आचार्य उसको अनुशासित करते तो वे अपनी माँ से जाकर शिकायत करते । उनको माँ आचार्य के ऊपर गुस्सा करतो तथा ताना कसती कि क्या आप समझते हैं कि पुत्र कहीं से ऐसे ही आ जाते है। विनय के फल विनय में शक्ति है जो जीवन को सच्ची प्राणवत्ता देते हैं, सच्ची दिशा देती है। यदि मनुष्य में विनय, शालीनता, सरलता, सादगी आदि सद्गुण नहीं है तो वह कहने मात्र का मनुष्य है, मानवता का स्वत्व उसमें कहाँ ? जैनागमों में विनय के निम्नलिखित फल बताये गये हैं १-शिक्षण काल से पूर्व ही शिष्य के विनय-भाव से प्रसन्न होकर आचार्य अर्थगम्भीर और विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं । २-वह तप, समाचारी, समाधि तथा पंचमहावतों का पालन करके दिव्य-ज्योति को प्राप्त करता है। ३-जिस प्रकार शकटादिवाहन को ठोक तरह से पहल करनेवाला बैल खुद को तथा अपने स्वामी को लेकर सुखपूर्वक जंगल को पार करता है ठीक उसी प्रकार विद्यार्थी स्व और १. उत्तराध्ययन-१२, १८, २९ आदि । २. उत्तराध्ययन टीका-३-६५ अ० । ३-४. पुञ्जा जस्स पसीयन्ति, संबुद्धापुव्वसंधुआ। पसन्ना लाभइस्सन्ति, विउलं अट्ठियं सुयं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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