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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 तवसमायारिसमाहि संबुडे महमुई पंच वयाइं पालिया । उत्तराध्ययन-१-४६-४७ । पर का अर्थात् सम्पूर्ण संसार का कल्याण करता है' । 124 ४ - जिस प्रकार पृथ्वी सभी प्राणियों का आधार है उसी प्रकार योग्य शिष्य अपनी कीर्ति का विस्तार करके सबका आधार बनता है । ५ - जो शिष्य आचार्यों और उपाध्यायों की सेवा करते हैं उनका शिक्षा -ज्ञान खूब अच्छी तरह सींचे हुए वृक्षों की भाँति क्रमशः बढ़ता ही जाता है । ६— जो समाचार प्राप्ति के लिए विनय का प्रयोग करते हैं, जो भक्तिपूर्वक गुरुवचनों को सुनकर एवं स्वीकृत करके कथित कार्य की पूर्ति करते हैं, जो कदापि गुरुश्री की आशातना नहीं करते वे शिष्य संसार में पूज्य होते हैं । ७ - जो शिष्य आचार्य को विनयभक्ति से सम्मानित करते हैं, वे स्वयं भी आचार्य से विद्यादान द्वारा सम्मानित होते हैं और यत्न से कन्या " के समान श्रेष्ठ स्थान पर स्थापित होते हैं । जो सत्यवादी जितेन्द्रिय और तपस्वी साधु ऐसे सम्मान योग्य आचार्यों का सम्मान करते हैं, वे संसार में सच्ची पूजा-प्रतिष्ठा पाते हैं । ८ - गुरुओं की विनयभक्ति करनेवाला, सदा नम्र रहनेवाला, मधुर एवं सत्य बोलनेवाला, आचार्यादि की नित्य सेवा वन्दना करने वाला, उनके वचनों को शिरोधार्य करनेवाला शिष्य ही वस्तुतः पूज्य पुरुष होता है । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि विनीत शिक्षार्थी ही सर्वश्रेष्ठ है । वह देव, गन्धर्व और मनुष्यों में पूजित तथा सर्वत्र आदर को प्राप्त करता है । अविनय के फल अविनीत शिक्षार्थी के लक्षण एवं कार्य के साथ-साथ अविनय के भी फल बताये गये हैं, जो इस प्रकार है १. वहणे वहमाणस्स कान्तारं अरवत्तई । जोए वहमाणस्स, संसारो अश्वत्तई ॥ उत्तराध्ययन- २७.१ । २. वही १.४५ । ३. जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणं करे । सि सिक्खापवति, जलसित्ता इव पायवा ।। दशवैकालिक - ९.१२ । ४. आयारमट्टा विषयं पउंजे, सुस्सूसमाणो पड़िजिज्झ वक्कं । होट्टं अभिकखमारो, गुरुं तु नासाययई स पुज्ओ ।। वही - ९.३.१ । ५. प्राचीन काल में भारतीय माता-पिता अपनी कन्याओं को बाल्यावस्था में शिक्षा-दीक्षा द्वारा सुयोग्य करते थे और फिर उसका यौनावस्था में सुयोग्य वर से विवाह कर देते थे जिससे उनकी सदाचारी और विदुषी पुत्रियों को किसी प्रकार का दुःख नहीं होता था । वही - पृ० ९२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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