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________________ जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व 119 करते समय मधु त्याग, मांस त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग तथा हिंसादि स्थूल पापों का त्यागकर सदाचारमयी प्रवृत्ति को अपनाता था जो वतावरण क्रिया के बाद भी जीवन पर्यन्त रहने वाले व्रत हैं। शिक्षार्थी की योग्यताएँ । प्राचीन काल में विद्यार्थियों को ज्ञानार्जन के लिए आश्रमों में गुरु के पास जाना पड़ता था। उन विद्यार्थियों में कुछ कोमल स्वभाव तथा मृदुभाषी हुआ करते थे तथा कुछ उद्दण्ड प्रवृत्ति के होते थे, जिन्हें जैनग्रन्थों में क्रमशः विनीत और अविनीत नाम से अभिहित किया गया है । विनयी का चित अहंकाररहित, सरल, विनम्र और अनाग्रही होता है, ठीक इसके विपरीत अविनयी, अहंकारी, कठोर, हिंसक और विद्रोही प्रवृत्ति का होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में विनीत और अविनीत को परिभाषित करते हुए कहा गया है-"जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरु के सानिध्य में रहता है, गुरु के इंगित एवं आकार अर्थात् संकेत और मनोभावों को जानता है, वह विनीत है ।" और, "जो गुरु को अज्ञा का पालन नहीं करता, गुरु के सानिध्य में नहीं रहता है, गुरु के प्रतिकूल आचरण करता है, असम्बुद्ध है अर्थात् तत्वज्ञ नहीं है, वह अविनीत कहलाता है । विनीत शिक्षार्थी के लक्षण जैन ग्रन्थों में विनीत के निम्नलिखित गुण बतलाये गये हैं (१) जो नम्र हो, (२) जो अस्थिर नहीं हो, (३) छल-कपट से रहित, (४) अकुतूहली, (५) किसी की निन्दा न करना, (६) क्रोध को अतिसमय तक न रखना, (७) मित्रों के प्रति कृतज्ञ, (८) ज्ञान को प्राप्त करने पर अहंकार न करना, (९) स्खलता होने पर दूसरों का तिरस्कार न करना, (१०) मित्रों पर क्रोध न करना, (११) अप्रिय मित्र के लिए एकान्त में भी भलाई की कामना करना, (१२) वाक्-कलह और हिंसादि न करना, (१३) अभिजात (कुलीन) होना, (१४) लज्जाशील होना और (१५) प्रतिसंलीन अर्थात् विषय के प्रति जागरूक रहना आदि। शिक्षाशील वह है जिनमें निम्नोक्त आठ गुण पाये जाते हैं-(१) अट्टहास न करने वाला, (२) जो सदा शान्त रहता हो, (३) किसी भी मर्म का उद्घोषण न करने वाला, १. मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ।। आदिपुराण-३८।१२२ । २. आणानिद्देसभरे. गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से 'विणीए' त्ति वुच्चई । आणाऽनिदेसकरे, गुरुणमणुववायकारए । पडिणीए असंबुद्धे, 'अविणीए' ति वुच्चई । उत्तराध्ययन-१।२।३ । ३. उत्तराध्ययन-१०।११-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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