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________________ 118 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 लरियों की बनी मुंज की मेखला धारण किया जाता है। तत्पश्चात् सफेद धोती धारण करने का विधान है। जो चोटी रखता है, जिसकी सफेद धोती और सफेद दुपट्टा है, जो विकारों से रहित है तथा जो व्रत के चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत सूत्र को धारण किए हुए है वह ब्रह्मचारी कहलाता है। जिनालय में जाकर अर्हतदेव की पूजा करना आवश्यक बताया गया है । राजपुत्रों को छोड़कर सभी के लिए भिक्षावृत्ति का विधान है। राजकुमारों को अन्तःपुर में जाकर माता-पिता से भिक्षा माँगनी चाहिए, क्योंकि उस समय भिक्षा लेने का नियोग है । भिक्षा में प्राप्त वस्तु का अग्रभाग श्री अरहन्तदेव को समर्पण कर बाकी बचे हुए योग्य अन्न को ग्रहण करना चाहिए। (३) व्रतचर्या : व्रतचर्या संस्कार में कमर में तीन लर की मौजी की मेखला पहनो जाती है, जो कि रत्नत्रय की विशुद्धि का प्रतीक मानी गयी है। सफेद धोती का पहनना उसके जाँघ का चिह्न है जो सूचित करती है कि अरहन्तदेव का कुल पवित्र और विशाल है। सात एटर का गूंथा हुआ यज्ञोपवीत सात परम स्थानों का सूचक है। स्वच्छ और उत्कृष्ट मुण्डन सिर का चिह्न है जो मन, वचन और काय को पवित्रता का द्योतक है । इस प्रकार के चिह्नों से विशुद्ध और ब्रह्मचर्य आदि व्रत को धारण करना व्रतचर्या संस्कार है। व्रतचर्या का अभिप्राय विद्याध्ययन के समय कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक का होना है जिससे विद्याध्ययन में कोई बाधा न हो । शिक्षार्थी का एक ही उद्देश्य रहता है, विद्या ग्रहण करना और अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रहता है । (४) व्रतावरण क्रिया : समस्त विद्याओं के अध्ययन के पश्चात् व्रतावरण क्रिया होती है। यह क्रिया गुरु के साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा कर बारह अथवा सोलह वर्ष बाद की जाती है । व्रतावरण के बाद ब्रह्मचर्य धारण करते समय वस्त्र, आभूषण और माला आदि का जो त्याग किया गया था, वह गुरु की आज्ञा से ग्रहण किया जा सकता है । जो शास्त्रोपजीवी अर्थात् क्षत्रिय वर्ग के हैं वे पुनः अपनी आजीविका के लिए शस्त्र धारण कर सकते हैं । इसी प्रकार वैश्य कृषि, व्यापार आदि कार्यों में प्रवृत्त हो सकते हैं। विद्यार्थी ब्रह्मचर्य धारण १. क्रियोपनीति मस्य वर्षे गर्भाष्टमे मता। यत्रापनीतकेशस्य मौञ्जी सव्रतबन्धना ॥ आदिपुराण-३८।१०४ । २. शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा निर्वेषविक्रियः । व्रतचिह्न दधत्सूत्रं तदोक्तो ब्रह्मचार्यसौ ।। चरणोचितमन्यच्च नामधेयं तदस्य वै । वृतिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राजन्यादुद्धवैभवात् ।। सोऽन्तःपुरे चरेत् पात्र्यां नियोग इति केवलम् । तदनं देवसास्कृत्य ततोऽन्नं योग्यमाहरेत् ॥ आदिपुराण-३८१०६-१०८ । ३. वही-३८।११०-११३ । ४. वही-३८।१२३-१२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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