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________________ आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत धात्वादेशों में बज्जिका के क्रिया-रूप 103 सर्वमान्य सिद्धन्त स्थापित नहीं हो सका है। किन्तु धातुओं के प्रकार में परम्परागत, निर्मित और संदिग्ध व्युत्पत्तिक है, यह तो सभी मानते हैं। संदिग्ध व्युत्पत्तिक धातुएँ ही प्राकृत व्याकरण के धात्वादेश हैं ।। कहा जा चुका है कि आदेश का अर्थ है मूल को हटाकर अन्य का स्थानापन्न हो जाना। धात्वादेश का अभिप्राय है कि तत्कालीन समानार्थ में प्रयुक्त धातुएँ, जो लोक में प्रचलित थीं, संस्कृत धातु के आदेश के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। यथाकथ संस्कृत धातु के अर्थ में हेमचन्द्रकालीन लोकभाषा (अपभ्रंश) अथवा हेमचन्द्र-पूर्व प्राकृत ग्रन्थों में प्रयुक्त भाषाओं (विभिन्न प्रकार की प्राकृतों) में प्रचलित धातुएँ हेमचन्द्र के द्वारा आदेश (धात्वादेश) कही गयी। वे वज्जर, पज्जर, उप्पाल, पिसुण, संध, बोल्ल, चव, जम्भ, सीस, साह-ये दस है। इनका प्रयोग तत्कालीन विभिन्न ग्रन्थों और क्षेत्रों में होता था। आद्य प्राकृत वैयाकरण वररुचि ने प्राकृत प्रकाश के क्रिया प्रकरण में भी ऐसी धातुओं का विवरण प्रस्तुत किया है । यहाँ उपर्युक्त दोनों वैयाकरणों के द्वारा अपने व्याकरण ग्रन्थों में संगृहीत धात्वादेशों को रखा जाता है, ताकि उनके विकास की एक झलक मिल जाये । संग्दिध व्युत्पत्तिक अथवा देशी (लोक प्रचलित) धातुओं का विकास वररुचि के काल (ईस्वी सन् की तृतीय शताब्दी) में ही पर्याप्त हो गया था, अन्यथा व्याकरणकार को उन्हें नियमों में बाँधना नहीं पड़ता । इस प्रकार के नियम निर्धारण को संस्कृत का ही आधार ग्रहण कर प्रतिष्ठित करना पड़ा था। वररुचि के व्याकरण में धात्वादेशों की संख्या अपेक्षाकृत अल्प है। हेमचन्द्र के काल तक लोक-भाषा का अधिक विकास हो गया था। फलतः उनके प्राकृत व्याकरण में अधिसंख्यक धात्वादेश प्राप्त होते हैं। प्राकृत प्रकाश में धातुओं के जितने आदेश हैं, सभी बज्जिका से सम्बद्ध नहीं हैं । यहां केवल बज्जिका के मूल रूप का ही विवरण अपेक्षित है । संस्कृत धातु प्राकृत आदेश बज्जिका रूप कक्थ कढ कऽढ़ी, कऽढ़ा, काढ़ा हेमचन्द्र के काल में क्वथ अर्थ में एक और आदेश रूप विकसित हो गया था-अट, जो अद्य पर्यन्त बज्जिका में प्रचलित है-"अटका" चढ़ल हएँ । जगन्नाथपुरी में देव प्रसाद "भात' का ही होता है, जिसे "अटका" कहते हैं । उसी अर्थ में "अटका' देर से बनने (सिद्ध होने) वाले भोज्य पदार्थ के लिए प्रयुक्त होता है। १. उदयनारायण तिवारी, हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास, पृ०-४४६, भोलानाथ तिवारी : हिन्दी भाषा, खण्ड-२, पृ०-२४०, ४१, ४२ । २. सिद्धहैम व्याकरण, ६.४,२ । ३. प्राकृत प्रकाश ८।३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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