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________________ 104 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 प्राकृत प्रकाश की एक धातु 'स"' है, जिसका आदेश "वज्ज" कहा गया है । वररुचि ने "त्रस' का एक ही आदेश कहा है, किन्तु हेमचन्द्र ने तीन आदेशों, बज्ज, वोज्ज, डर का प्रयोग किया है । बज्जिका के धातु रूप "डर" का विकास "त्रस" के आदेश के रूप में हेमचन्द्र के काल तक हो गया था, जो वररुचि के समय में नहीं था। मस्ज संस्कृत धातु के वुट्ट (वुड्ड), खुप्प दो आदेश वररुचि कथित है । बुट्ट-बुड्डु का सम्बन्ध बज्जिका "बूड़" से है । "ओक्कर सब रूपइया बूड़ गलइ" । हेमचन्द्र ने चार आदेशों का जिक्र किया है-आउड्ड, निउड, वुड्ड, खुप्प' । “बूड' एक संस्कृत धातु भी है, जिसका अर्थ संवरण है। प्राकृत "बूड' से वर्णव्यत्यय होने पर "डूब" धातु बज्जिका में बनी है । महाकवि बिहारी की पंक्ति 'अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग" देखने में पता चलता है कि प्राकृत का "बुड्ड" बिहारी के समय में "बूड" हो गया था। बज्जिका में "निउड्ड" रूप से "निहड़" नीचे झुकना अर्थ में प्रचलित है, जिसमें "ह" का आगम हो गया है । मस्ज-मज्जन के लिए “निहुड़ना" नीचे झुकना आवश्यक है। वररुचि ने शक के आदेश "तर", "बअ", "तीर'' कहते हैं । बज्जिका में "तर" "तीर" का प्रयोग होता है । "ऍह पूंजी से तोरा केतना पइसा (लाभ) तीराऍल हओं"। "तर" का प्रयोग "तरन-भरन" दान-दहेज के अर्थ में होता है। लोग जैसा सकते हैं, वैसा "तरन-भरन” देते हैं। हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण तथा कुमारपालचरित काव्य में शक के लिए चार आदेशचय, तर, तीर, पार बतलाये है। वररुचि के "बअ" का हेमचन्द्र के काल में अप्रयोग या लोप हो गया था । लोक प्रयोग में शब्द बनते-मिटते रहते हैं । प्रयोग से बनना और अप्रयोग से मिटना होता रहता है। एक नया आदेश “पार" व्यवहार में आया । बज्जिका में चय" का नहीं, किन्तु "तीर", "पार" का प्रयोग होता है । "हमरा से ई काम पार न लगतो" का अर्थ होगा "मैं यह काम नहीं कर सकूँगा"। संस्कृत शक से प्राकृत या बज्जिका "पार" के अर्थ की समानता है। "तीर" प्राप्त होने के लिए आता है। पाणिनीय धातु पाठ में भी "पारतीरकर्मसमाप्तौ" पढ़ा गया है । यह चुरादिगणीय धातु है-पारयति, तीरयति । पररुचि "तीर" को और हेमचन्द्र "पार' और 'तीर' को शक का समानार्थक मानते हैं । कई ऐसी धातुएँ पाणिनीय धातुपाठ में पठित है, किन्तु काव्यादि में उनका प्रयोग अल्प अथवा नहीं रहा और लोक व्यवहार में साक्षात् अथवा विकास के रूप में प्रयुक्त होते रहे। 'पार" १. वही, ८६६ । २. सिद्ध हैम व्याकरण, ८।४।१९८ । ३. प्राकृत प्रकाश, ८१६८ । ४. सिद्ध हैम व्याकरण, ८।४।१०१ । ५. प्राकृत प्रकाश, ८1१० । ६. सिद्ध हैम व्याकरण, ८१४९८६ तथा कुमारपालपरित, ६।५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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