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________________ 96 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 शब्द और पदार्थ भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं। इस प्रकार अर्थ की ही अभिधानानुषक्तता सिद्ध होती है। - एक बात यह भी है कि जो यह मानते हैं--प्रत्यक्ष ज्ञान में अभिधानानुषक्त (शब्दसहित) पदार्थ ही प्रतिभासित होता है, उसके यहाँ बालक आदि को अर्थ के दर्शन की सिद्धि कैसे होगी, क्योंकि बालक मूक आदि शब्द को नहीं जानते २ । इसी प्रकार मन में 'अश्व' का विचार करने वाले को गो-दर्शन कैसे होगा, क्योंकि उस समय उस व्यक्ति को 'गो' शब्द का उल्लेख नहीं होता। ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि एक साथ अश्व का विचार और गोदर्शन हो रहे हैं। इस मान्यता में दोनों अर्थात् अश्व का विकल्प और गो-दर्शन असिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि संसारी व्यक्ति में एक साथ दो शक्तियां नहीं हो सकती। वैखरी आदि का लक्षण असत्य है शब्द अद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है कि ज्ञान में वाग्रूपता शाश्वती है । यदि उसका उल्लंघन किया जायेगा, तो ज्ञानरूप प्रकाशित नहीं हो सकेगा। इस कथन के ठीक न होने का कारण यह है कि चाक्षुष प्रत्यक्ष में शब्द (वापता) का संस्पर्श (संसर्ग) नहीं होता। श्रोत्र से ग्रहण करने योग्य वैखरी (वचनात्मक) वाग्रूपता का भी संस्पर्श चाक्षुष- त्यक्ष नहीं करता, क्योंकि वैखरी चाक्षुष-प्रत्यक्ष का विषय नहीं हैं। इसी प्रकार अन्तर्जल्पयुक्त मध्यमा वाक् को चाक्षुष-प्रत्यक्ष संस्पर्श नहीं करता, फिर भी (उसके बिना भी) शुद्ध रूपादि का ज्ञान होता है। जिससे समस्त वर्णादि विभाग का संहार हो गया है, ऐसी पश्यन्ती (अर्थदर्शनरूपा) और आत्मदर्शनरूपा सूक्ष्मा वाग्रूपता वाणी रूप हो नहीं सकती। शब्द-अद्वैतवाद में पश्यन्ती और सूक्ष्मा को अर्थ एवं आत्मा का साक्षात् (दर्शन) करने वाली माना है। जब उन दोनों में शब्द नहीं है, तो वे वाणी कैसे कहलाएँगो, क्योंकि वाणी वर्ण, पद और वाक्यरूपा होती है। अतः वागादि का लक्षण ठीक नहीं है । शब्दब्रह्म में वैखरी आदि अवस्थायें विरुद्ध हैं आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि नित्य, निरंश और अखण्ड शब्दब्रह्म में वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा ये चार भेद नहीं हो सकते । किसी सांश पदार्थ में ही भेद हो सकता है । वे शब्द अद्वैतवादी से एक यह भी प्रश्न करते हैं कि क्या वैखरी आदि चार अवस्थायें सत्य हैं ? सत्य मानने पर उनके सिद्धान्त विरोधी सिद्ध होते हैं, क्योंकि शब्दब्रह्म की तरह वैखरी आदि को सत्य मान लिया गया है, जिससे द्वैत को सिद्धि होती है। १. वही। २. कथं चैवंवादिनो बालकादेश्यदर्शनसिद्धिः, तत्राभिधाना प्रतीतेः . . . । -प्र०क०मा०, १/३, पृ० ४१ । ३. वही। ४. वही। ५. निरंशशब्दब्रह्मणि तथा वक्तुमशक्तेः । त. श्लोक वा. १/३/२०, पृ. २४० । ६. तस्यावस्थानां चतसृणां सत्यत्वेऽद्वैतविरोधात्। वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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