________________
शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 95 युक्त विषय के) है ' । एक बात यह भी है कि जब तक विशेषण को न जाना जाय, तब तक विशेष्य को नहीं जाना जा सकता, जैसे-दण्ड को जाने बिना दण्डी को नहीं जाना जाता। इसी प्रकार जब शब्द रूप विशेषण को चाक्षुषज्ञान से नहीं जाना जाता, तो रूपयुक्त पदार्थ अर्थात् विशेष्य का ज्ञान नहीं हो सकता । ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि दूसरे ज्ञान (श्रोत्रज्ञान) में शब्दविशेषणरूप से प्रतीत होने पर पदार्थ का विशेषण बन जाता है। यहां दोष यह है कि शब्द और अर्थ में भेद सिद्ध हो जायेगा; यह पहले ही कहा जा चुका है कि जो-जो विभिन्न इन्द्रियों द्वारा जाने जाते हैं वे पृथक्-पृथक् होते हैं।
प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि शब्द-अद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है कि शब्द से सम्बद्ध (मिले हुए) पदार्थ का स्मरण होने से उस पदार्थ को शब्द रूप मानते हैं। इस प्रकार शब्द से सम्बद्ध अर्थ का ज्ञान हो जायेगा। इस मान्यता में अन्योन्याश्रय नामक दोष आता है। तात्पर्य यह है कि शब्द से सम्बद्ध अर्थ की प्रतीति होने पर वचन सहित पदार्थ के स्मरण की सिद्धि होगी और वचनसहित पदार्थ के स्मरण होने पर शब्द रूप अर्थ के दर्शन की सिद्धि होगी। इस प्रकार विचार करने पर शब्दानुविद्धता का स्वरूप ही सिद्ध नहीं होता।
अर्थ की अभिधानानुषक्तता क्या है ? शब्द-अद्वैतवादी से प्रभाचन्द्र आचार्य एक यह भी प्रश्न करते हैं कि निम्नांकित विकल्पों में से पदार्थ की अभिधानानुषक्तता क्या है " ?
१. अर्थज्ञान में शब्द का प्रतिभास होना । २. अर्थ के देश (स्थान) में शब्द का वेदन (अनुभव) होना ।
३. अर्थज्ञान के काल में शब्द का प्रतिभास (प्रतीत) होना । १. अर्थज्ञान में शब्द का प्रतिभास होना अर्थ की अभिधानानुषक्तता नहीं है, क्योंकि नेत्रजन्य ज्ञान में शब्द का प्रतिभास या प्रतीति नहीं होती। २. इसी : कार अर्थ की अभिधानानषक्तता का मतलब अर्थ के देश में शब्द का अनुभव होना नहीं है, क्योंकि शब्द का श्रोत्रप्रदेश में अनभव होता है और शब्द से सर्वथा विहीन रूपादि स्वरूप पदार्थ का अपने प्रदेश में अपने विज्ञान से अनुभव होता है। ३. इसी प्रकार अर्थज्ञान के काल में शब्द का प्रतिभास होना भी अर्थ की अभिधानानुषक्तता नहीं है, क्योंकि समान काल में शब्द और अर्थ के होने पर भी समान काल शब्द का लोचनज्ञान में प्रतिभास नहीं होता और भिन्न ज्ञान से जानने पर
१. द्वितीयपक्षेऽपि अभिधाने प्रवर्तमानं शुद्धरूपमात्रविषयं लोचनविज्ञानं कथं तद्विशिष्ट___ तया स्वविषयमुद्योतयेत् ? वही । २. वही। ३. . . , तथा सति अनयोर्भेदसिद्धिः । वही । ४. अन्योन्याश्रयानुषंगात् · · ·। वही, १/३, पृ० ४१ । ५. प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org