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________________ शब्द-अद्वैतवाद का समालो वनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 89 चाहिए, क्योंकि वह नील पदार्थ शब्दमय है ' । अर्थात् नील पदार्थ और नील शब्द अभिन्न हैं । इस बात की पुष्टि अनुमान प्रमाण से भी होती है कि जो जिससे अभिन्न होता है, वह उसका संवेदन होने पर संविदित हो जाता है । जैसे—पदार्थों के नील आदि रंग को जानते समय उससे भिन्न नील पदार्थ भी जान लिया जाता है २ । शब्द-अद्वैतवादियों के सिद्धान्तानुसार नील-पीत आदि पदार्थ से शब्द अभिन्न है। इसलिए जब बधिर पुरुष नील पदार्थ जानता है, तो उसी समय अर्थात् नील पदार्थं जानते समय उसे शब्द का संवेदन अवश्य होना चाहिये । शब्द-अद्वैतवादी कहते हैं कि शब्द का संवेदन बधिर मनुष्य को नहीं होता, तो प्रभाचन्द्र आदि आचार्य प्रत्युत्तर में कहते हैं कि उसे नीलादि रंग का भी संवेदन नहीं होना चाहिए, क्योंकि नील पदार्थ के साथ जिस प्रकार रंग तादात्म्य रूप से रहता है, उसी प्रकार शब्द का भी उसके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । दूसरे शब्दों में नोल रंग और शब्द दोनों नील पदार्थ से अभिन्न हैं । यदि नील पदार्थ के नीले रंग का अनुभव हो और उससे अभिन्न शब्द का अनुभव बधिर पुरुष को न हो तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक वस्तु में दो विरुद्ध धर्म हैं। दो विरुद्ध धर्मों से युक्त उस शब्दब्रह्म को नील पदार्थ से भिन्न मानना पड़ेगा। एक वस्तु का एक ही समय में एक ही प्रतिपत्ता (ज्ञाता) की अपेक्षा से ग्रहण और अग्रहण मानना ठीक नहीं है। इस प्रकार विरुद्ध धर्माध्यास होने पर भी नीलादि पदार्य और शब्द में भेद सिद्ध होता है। यदि उनमें भेद न माना जाय तो हिमालय और विन्ध्याचल आदि में भी भेद असम्भव हो जायेगा। शब्दब्रह्म अपने पूर्व स्वभाव को छोड़कर नीलादि पदार्थ रूप में परिणमित होता है, ऐसा मानना भी निर्दोष नहीं है । अतः जगत् को शब्दमय मानना ठीक नहीं। प्रभाचन्द्र वादिदेव सूरि आदि जैन आचार्य शब्द-अद्वैतवादियों से एक प्रश्न यह भी करते हैं कि शब्दब्रह्म उत्पत्ति और विनाश रूप परिणमन करता हुआ प्रत्येक पदार्थ में भिन्न परिणाम को प्राप्त होता है या अभिन्न ?' यदि यह माना जाय कि शब्दब्रह्म परिणमन करता हुआ, जितने पदार्थ हैं, उतने ही रूपों में होता है तो शब्द-अद्वैतवादियों का ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दब्रह्म में अनेकता का प्रसंग आता है। जितने स्वभाव वाले विभिन्न पदार्थ हैं, उतने स्वभाव वाला ही शब्दब्रह्म को मानना पड़ेगा। इस दोष से बचने के लिए ऐसा १. · · रूपसंवेदनसमये बधिरस्य शब्दसंवेदनप्रसङ्गः · · · । ---वही२. यत्खलु यदव्यतिरिक्तं तत्तस्मिन्संवेद्यमाने संवेद्यते . . , नीलाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्द इति । -वही–तुलना करें-त० सं० का० १३१, एवं पंजिकाटीका, पृ० ८७ । ३. किं च असौ शब्दात्मा परिणामं गच्छन्प्रतिपदार्थभेदं प्रतिपद्यते, न वा? (क) प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४४ ।। (ख) न्या० कु० च०, १/५, पृष्ठ १४६ । (ग) स्या० र०, १/७, पृष्ठ १०१ ।। ४. तत्राद्यविकल्पे शब्दब्रह्मणोंऽनेकत्वप्रसंगः, विभिन्नानेकस्वभावाऽर्थात्मकत्वात्तत्स्वरूपवत् । -वही १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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