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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 जगत् शब्द का परिणाम नहीं है उपर्युक्त दो विकल्पों में से शब्द-अद्वैतवादी इस विकल्प को माने कि जगत् शब्द का परिणाम होने के कारण शब्दमय है, तो उनकी यह मान्यता न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि प्रथमतः निरंश और सर्वथा नित्य शब्दब्रह्म में परिणाम हो ही नहीं सकता' । शब्दब्रह्म में जब परिणमन असम्भव है, तो जगत् शब्दब्रह्म का परिणाम कसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता। शब्दब्रह्म परिणमन करते समय अपने स्वाभाविक स्वरूप को छोड़ता है या नहीं ? ___ शब्दब्रह्म को परिणामी मानने पर प्रश्न होता है कि शब्दात्मक ब्रह्म जब नील आदि पदार्थ रूप से परिणमित होता है, तो वह अपने स्वाभाविक शब्दरूप स्वभाव का त्याग करता है अर्थ अथवा नहीं। यदि उपर्यक्त विकल्पों में से यह माना जाय कि शब्दब्रह्म परिणमन करते समय अपने स्वाभाविक स्वरूप को छोड़ देता है, तो ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दब्रह्म में 'विरोध' नामक दोष आता है। शब्दब्रह्म का स्वरूप अनादिनिधन है, और जब वह अपने पूर्व स्वभाव का त्याग कर जलादि रूप से परिणमन करेगा, तो उसके अनादि-निधनत्व ( पूर्व स्वभाव ) का विनाश हो जायेगा; जो शब्द-अद्वैतवादियों को अभीष्ट नहीं है। अतः शब्दब्रह्म अपने पूर्व स्वरूप को त्यागकर जलादिरूप से परिणमन करता है, यह विकल्प ठीक नहीं है । उपर्युक्त दोष से बचने के लिए यह माना जाय कि शब्दब्रह्म अपने स्वाभाविक पूर्व स्वरूप को छोड़े बिना जलादि पदार्थ रूप से परिणमन करता है तो उनकी यह मान्यता भी निर्दोष नहीं है। इस दूसरे विकल्प के मानने पर एक कठिनाई यह आती है कि नीलादि पदार्थ के संवेदन के समय बधिर ( जिसे सुनाई नहीं पड़ता है ) को शब्द का संवेदन होना १. न तावदाद्यः पक्षः परिणामानुपपत्तेः। - वही - २. शब्दात्यकं हि ब्रह्म नीलादिरूपतां प्रतिपद्यमानं स्वाभाविकं शब्दरूपं परित्यज्य प्रतिपद्येत्, अपरित्यज्य वा ? - वहीं - ३. (क) प्रथमपक्षे अस्याऽनादिनिधनत्वविरोधः . . . . । -अभवदेवसूरि : सं० त० प्र० टी०, पृष्ठ ३८१ । (ख) प्रभाचन्द : प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४३ । (ग) प्रभाचन्द्र : न्या० कु० चं०, १/५ पृष्ठ १४६ । (घ) वादिदेवसूरि : स्या० २० १/७ पृष्ठ १०० । (ङ) न बा तथेति यद्याद्यः पक्षः संश्रीयते तदा । अक्षरत्ववियोगः स्यात् पौरस्त्यात्मविनाशनात् ॥ -त० सं० का० १३०, और भी देखें टीका पृष्ठ ८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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