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________________ शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 87 नहीं है, क्योंकि आगम को ब्रह्म से अभिन्न मानने पर तद्वत् आगम भी असिद्ध हो जायेगा। इस प्रकार सिद्ध है कि आगम प्रमाण भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है। आगम को शब्दब्रह्म का साधक मानने से परस्पराश्रय नामक दोष भी आता है, क्योंकि ब्रहा का अस्तित्व हो तो आगम सिद्ध हो और आगम हो तो उससे ब्रह्म की सिद्धि हो। इस प्रकार सिद्ध है कि आगम और शब्दब्रह्म दोनों की सिद्धि परस्पर आश्रित हैं। अतः प्रत्यक्ष अनुमान की भाँति आगम-प्रमाण से भी शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं होती। इन प्रत्यक्षादि प्रमाणों के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण ऐसा नहीं है, जिससे उसकी सिद्धि हो सके। प्रमाणों के द्वारा सिद्ध न होने पर भी यदि किसी पदार्थ को सिद्धमान लिया जाए, तो वह ताकिकों के समक्ष जल के बुलबुले के समान अधिक समय तक स्थित नहीं रह सकेगा।' तात्पर्य यह है कि जिस पदार्थ की सिद्धि प्रमाणों से नहीं होती, वह तर्कशास्त्रियों को मान्य नहीं होता। शब्दब्रह्म भी किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता । इसलिए उसका अस्तित्व नहीं है। जगत् शब्दमय नहीं शब्द-अद्वैतवादी सम्पूर्ण जगत् को शब्दमय मानते हैं। उनका यह मत तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि जब उस पर विचार किया जाता है, तो तार्किक रूप से वह शब्दमय सिद्ध नहीं होता । सन्मतितर्क-प्रकरण के टीकाकार अयदेव सूरि, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के प्रणेता प्रभाचन्द्र और स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरि ने गम्भीरतापूर्वक विचार कर यह सिद्ध किया है कि जगत् शब्दमय नहीं है। तत्वसंग्रह और उसकी पंजिका टीका में भी जैन आचार्यों की भाँति तार्किक रूप से जगत् के शब्दमय होने का निराकरण किया गया है। उपर्युक्त आचार्य कहते हैं कि यदि सम्पूर्ण जगत् शब्दमय है तो शब्द-अद्वैतवादियों को बताना होगा कि जगत् शब्दमय क्यों है ? क्या इसलिए उसे शब्दमय माना जाता है कि जगत् शब्द का परिणाम है या इसलिए कि वह शब्द का परिणाम है या इसलिए कि वह शब्द से उत्पन्न हुआ है ? इन दो विकल्पों के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, जिससे जगत् को शब्दमय सिद्ध किया जा सके। १. (क) अनर्थान्तरभावे तु तद्वदागमस्याप्यसिद्धिप्रसङ्गः । ----प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४६ । (ख) स्या० र०, १/७, पृ० १०२ । २. न चाविनिश्चिते तत्त्वे फेनबुबुद्वभिदा। ---त० श्लो० वा०, १/३, सू० २०. का० १०१ । ३. कित्र जगतः शब्दपरिणामरूपत्वाच्छब्दमयत्वं साध्यते उत शब्दात् तस्योत्पत्तेः शब्दमयत्वं यथा अन्नमयाः प्राणा इति हेतो • • • • • । (क) सं० त० प्र० टीका, पृष्ठ ३८०-३८१ । (ख) प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४३ । (ग) न्या० क० चं०, १/५, पृष्ठ १४५, स्या० २०, पृष्ठ १००, त० सं० टीका, का० १२६, पृष्ठ ८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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