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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 माना जाय कि शब्दब्रह्म जब अनेक रूप परिणमित होता है, तो वह प्रत्येक पदार्थ में भिन्न परिणाम को प्राप्त नहीं होता अर्थात् अभिन्न रूप से परिणमन करता है। इस सन्दर्भ में प्रभाचन्द्रादि कहते हैं कि यह पक्ष भी निर्दोष नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से नील-पीत आदि पदार्थों में देश-भेद, काल-भेद, स्वभाव-भेद, अवस्था-भेद आदि का अभाव हो जायेगा । तात्पर्य यह है कि जो एक स्वभाव वाले हैं, वे शब्द-ब्रह्म से अभिन्न हैं । जबकि प्रत्यक्ष रूप से सबको देश-भेद, काल-भेद, स्वभाव-भेद आदि भेदों का अनुभव होता है । अतः ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं है कि शब्दब्रह्म परिणमन करता हुआ प्रत्येक पदार्थ में भिन्नता को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार दोनों विकल्प सदोष होने पर यह सिद्ध हो जाता है कि शब्द का परिणाम होने से जगत् शब्दमय नहीं है।' शब्द से उत्पन्न होने के कारण जगत् शब्दमय नही होता
प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि आदि जैन तर्कवादी कहते हैं कि शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि शब्दब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण जगत् शब्दमय है, क्योंकि उन्होंने शब्दब्रह्म को सर्वथा नित्य माना है । सर्वथा नित्य होने से वह अविकारी है अर्थात् उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता। नित्य शब्दब्रह्म से क्रमशः कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतः सम्पूर्ण कार्यों की एक साथ एक ही समय में उत्पत्ति हो जायेगी, क्योंकि यह नियम है कि समर्थ कारण का अभाव ( वैकल्प ) होने पर कार्यों की उत्पत्ति में विलम्ब होता है। समर्थ कारण के उपस्थित रहने पर कार्यों की उत्पत्ति में विलम्ब नहीं होता। जब शब्दब्रह्म कारण अविकल्प ( समर्थ ) रूप से विद्यमान है, तब कार्यों को और किसकी अपेक्षा है, जिससे उनकी एक साथ उत्पत्ति न हो। समर्थ कारण के रहने पर अवश्य ही समस्त कार्यों की उत्पत्ति हो जायेगी। घटादि कार्य-समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न
प्रभाचन्द्राचार्य और वादिदेव सूरि एक प्रश्न यह भी करते हैं कि घट, पटादि कार्य-समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न ? यदि शब्द-अद्वैतवादी इसके उत्तर में यह कहें
१. तन्न शब्दपरिणामत्वाज्जगतः शब्दमयत्वं घटते । वही । २. (क) प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, १/५, पृष्ठ १४६ । (ख) प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४४ ।
(ग) वादिदेव सूरि : स्या० र०, १/७, पृष्ठ १०१ । ३. कारणवैकल्याद्धि कार्याणि विलम्बन्ते नान्यथा । तच्चेदविकलं किमपरं तैरपेक्ष्यं येन
युगपन्न भवेयुः ? (क) प्र० क० मा०, पृष्ठ ४४ । (ख) न्या० कु० च०, पृष्ठ १४७ । ४. किं च अपरापरकार्यग्रामोऽतोऽर्थान्तरं अनर्थन्तरं वोत्पद्येत ? (क) प्र० क० मा०, १३, पृष्ठ ४४ । (ख) स्या० र०, १/७, पृष्ठ १०१ ।
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