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________________ शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 85 प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि शब्द-अद्वैतवादियों का यह अनुमान भी ठीक नहीं है कि जो जिस आकार से अनुस्यूत होते हैं, वे उसी स्वरूप ( तन्मय ) के ही होते हैं। जैसे घट, शराब, उदंचन आदि मिट्टी के आकार से अनुगत होने के कारण वे मिट्टी के स्वभाव वाले हैं और सब पदार्थ शब्दाकार से अनुस्यूत हैं, अतः शब्दमय हैं। इस कथन के ठीक न होने का कारण यह है कि पदार्थ का शब्दाकर से अन्वित होना असिद्ध है' । शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन तभी सत्य माना जाता, जब नील आदि पदार्थों को जानने की इच्छा करने वाला (प्रतिपत्ता ) व्यक्ति प्रत्यक्ष प्रमाण से जानकर उन पदार्थों को शब्दसहित जानता। किन्तु, ऐसा नहीं होता, इसके विपरीत वह उन पदार्थों को प्रत्यक्ष रूप से शब्दरहित ही जानता है । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि पदार्थों का स्वरूप शब्दों से अन्वित न होने पर भी शब्द-अद्वैतवादियों ने अपनी कल्पना से मान लिया है कि पदार्थों में शब्द अन्वितत्व है । इसलिए भी उनकी मान्यता असिद्ध है। तात्पर्य यह है कि 'शब्दान्वितत्व' रूप हेतु कल्पित होने से शब्दब्रह्म की सिद्धि के लिये दिये गये अनुमान प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं होती। घटादि रूप दृष्टान्त साध्य और साधन से रहित है शब्दब्रह्म की सिद्धि हेतु प्रयोज्य अनुमान भी घटादि रूप दृष्टान्त में साध्य और साधन के न होने से निर्दोष नहीं है। क्योंकि, घटादि में सर्वथा एकमयत्व और एकान्वितत्व सिद्ध नहीं है । समान और असमान रूप से परिणत होनेवाले सभी पदार्थ परमार्थतः एकरूपता से अन्वित नहीं है । इसलिये सिद्ध है कि अनुमान प्रमाण शब्दब्रह्म का साधक नहीं है । आगम प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि सम्भव नहीं है आगम प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि तर्कसंगत नहीं है। एतदर्थ विद्यानन्द कहते हैं कि यदि शब्द-अद्वैतवादी जिस आगम से शब्दब्रह्म की सिद्धि मानेंगे, तो उसी आगम से भेद की सिद्धि भी क्यों नहीं मानेंगे" ? इस प्रकार आगम शब्दब्रह्म का साधक नहीं है। १. · · · तदप्युक्तिमात्रम् : शब्दाकारान्वितत्वस्यासिद्धेः (क) न्या० कु० च०, १/५, पृष्ट १४५ । (ख) प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४६ । २. कल्पितत्वाच्चास्याऽसिद्धिः। -वही--- __ तुलना के लिये द्रष्टव्य त०सं०टीका, पृ० ९१ । ३. साध्यसाधन विकलश्च दृष्टान्तो • • • I--वही । ४. (क) न खलु भावानां परमार्थेनेकरूपानुगमोऽस्ति । —वही । (ख) सं०त०प्र० टीका, पृ० ३८३ । ५. आगमादेव तत्सिद्धो भेदसिद्धिस्तथा न किम् ।। -----त० श्लो० वा०, १/३, सूत्र २०, श्लोक ९९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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