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________________ 84 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 __ अब यदि शब्द-अद्वैतवादियों का यह अभिमत हो कि अन्य सिद्धान्तों से मान्य अनुमानप्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि हो जाती है। तो इनके प्रत्युत्तर में आचार्य विद्यानन्द का कथन है कि परवादियों की अनुमान प्रक्रिया शब्द-अद्वैतवादियों के लिए प्रामाणिक नहीं है । अभयदेव सूरि, प्रभाचन्द्र और तत्वसंग्रह के टीकाकारों ने विशद रूप से शब्द-अद्वैतवादियों की इस युक्ति का खण्डन करके सिद्ध किया है कि अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्ष प्रमाण की भाँति शब्दब्रह्म का साधक नहीं है । विकल्प प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं कि अनुपलब्धि लिंग वाले अनुमान को विधिसाधक नहीं माना गया है। अतः शब्द-अद्वैतवादियों को बताना चाहिए कि वे किस अनुमान को ब्रह्म का साधक मानते हैं।' कार्यलिंग वाले अनुमान को ? अथवा स्वभाव आदि लिंग वाले अनुमान को ? कालिंग वाले अनमान को शब्दब्रह्म का साधक नहीं माना जा सकता, क्योंकि नित्य-एक-स्वभाव वाले शब्दब्रह्म से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। वह न तो कम से कार्य की निष्पत्ति ( अर्थक्रिया ) कर सकता है और न युगपत् ( एक साथ )२ । जब उसका कोई कार्य नहीं है, तो उसके साधक अनुमान का हेतु किसे बनाया जाय ? अर्थात् कार्य के अभाव में कार्यलिंग वाले अनुमान से शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं हो सकती। स्वभावलिंग वाला अनुमान भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है, क्योंकि धर्मी रूप शब्दब्रह्म के सिद्ध होने पर ही उसके स्वभाव ( स्वरूप ) भूत धर्म वाले अनुमान से उसका अस्तित्व सिद्ध करना तर्कसंगत होता है । लेकिन जब शब्दब्रह्म नामक धर्मी ही असिद्ध है, तो उसका स्वभावलिंग भी असिद्ध होगा। अतः स्वभावलिंग वाला अनुमान शब्दब्रह्म का साधक ही नहीं हो सकता। कार्य और स्वभावलिंग को छोड़कर अन्य कोई ऐसा हेतु ही नहीं है, जो शब्दब्रह्म का साधक हो। १. (क) नाप्यनुमानतस्तत्सिद्धिः यतोऽन्मानं कार्यलिंगजम् स्वभावहेतुप्रभवं वा तत्सिद्धये व्याप्रियते ?—अभयदेवसूरि : सं०त०प्र०टी०, तृवि, गा० ६, पृष्ठ ३८४ । (ख) • • • • , अनुमानं हि कार्यलिङ्ग वा भवेत् स्वाभावादिलिङ्ग वा ? --प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४५ । (ग) नाप्यनुमानतः । तथा ह्यनुमानं भवत्कार्यलिङ्ग भवेत् स्वभावलिङ्गवा ? -कमलशील : त० सं० पञ्जिका टीका, कारिका १४७-१४८, पृष्ठ ९२-९३ । २. (क) नाप्यनुमानतस्तत्सिद्धि • • • • • • • तत्सिद्धये व्याप्रियते ? -अभयदेवसूरि : सं० त० प्र० टी०, तृ० वि० गा० ६, ३८४ । (ख) • • • • • अनुमानं हि • • • • • • भवेत् स्वाभावादि लिङ्ग वा ? ----प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४५ । (ग) नाप्यनुमानतः । r) नायनमानत: • • • • • स्वभावलिवा ? -कमलशील : त० स० पंजिका, टीकाकारिका १४७-४८, पृष्ठ ९२-९३ । ३. वही। तुलना करेंधर्मिसत्वाप्रसिद्धेस्तु, न स्वभावः प्रसाधकः । त० सं०, कारिका १४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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