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________________ शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 83 भी स्वसंवेदन को विरुद्ध बताकर उसका निराकरण किया है। एक अन्य बात यह है कि घटादि शब्द और पदार्थ स्वसंविदित स्वभाव वाले नहीं हैं, इसके विपरीत सभी लोगों को अस्पसंविदित रूप ही प्रतीत होते हैं । तात्पर्य यह है कि घट-पटादिक शब्द और पदार्थ शब्दब्रह्म की पर्याय हैं और शब्द-अद्वैतवादी शब्दब्रह्म को स्वसंविदित रूप मानते हैं। जैन तर्कशास्त्रियों का कथन है कि शब्दब्रह्म की भाँति घटादि शब्द और पदार्थ स्वसं विदित रूप होने चाहिए, क्योंकि वे उसी शब्दब्रह्मा के विवर्त हैं। ऐसी प्रतीति किसी को नहीं होती; सभी को घटादि पदार्थ अस्वसंविदित रूप ही प्रतीत होते हैं। इससे सिद्ध है कि शब्दब्रह्म भी. स्वसंविदित रूप नहीं है और प्रत्यक्ष प्रमाण से इसकी प्रतीति किसी को नहीं होती। अनुमानप्रमाण भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है अनुमान प्रमाण भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है, क्योंकि ऐसा अनुमान नहीं है, जो शब्दब्रह्म की सिद्धि करता है । दूसरी बात यह है कि शब्द-अद्वैतवादियों को अनुमान प्रमाण मान्य नहीं हैं। आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि शब्द-अद्वैतवादियों ने अनुमान के द्वारा अर्थों की प्रतीति को दुर्लभ माना है। उनका मत है कि जिस समय व्याप्ति का ग्रहण होता है, उसी समय सामान्य रूप से अनुमेय का ज्ञान हो जाता है। अनुमान काल में पुनः उसे सामान्यरूप से जानने पर सिद्ध-साधन दोष आता है। विशेष रूप से अनुमेय जानने के लिए हेतु का अनुगम गृहीत नहीं होता। अतः अनुमान से अर्थ-प्रतीति जब शब्द-अद्वैत-सिद्धान्त में मान्य नहीं है, तो उससे शब्दब्रह्म की सिद्धि कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते। १. अथ ज्ञानरूपवत् स्वसंवेदनस्याध्यक्षत एव शब्दब्रह्म सिद्धम् .. असदेतत्; स्वसंवेदनविरुद्धत्वात् तथाहि अन्यत्र गतचित्तोऽपि रूपं चक्षुषा वीक्षमाणोऽभिलापासंसृष्टमेव नीलादिप्रत्ययमनुभवतीति · · · · । ____ अभयदेवसूरि : सन्मतितर्कप्रकरणटीका, तृतीय विभाग, गा० ६, पृ० ३७४ । तुलना करें- . . ' तथा हि ज्योतिस्तदेव शब्दात्मकत्वाच्चैतन्यरूपत्वाच्चेति ? तदेतत् स्वसंवेदनविरुद्धम् । तथाहि अन्यत्र गतमानसोऽपि चक्षुषा रूपमक्षिमाणोऽनादिष्टाभिलापमेव नीलादिप्रत्ययमनुभवतीति । --कमलशील : त० सं० टीका, मृ० १४७, पृ० ९२ । २. न च घटादिशब्दोऽर्थो वा स्वसंविदितस्वभावः यतस्तदन्वितत्वं स्वसंवेदनतः सिद्धयेत्, अस्संविदितस्वभावतयैवास्य प्रतिप्राणिप्रसिद्ध त्वात् । न्या० कु० च०, १/५ पृ० १४४ । ३. नाप्यनुमानेन, तस्य तत्सद्भावावेदकस्य कस्यचिदसम्भवात् । ---वादिदेव सूरि : स्या० २०, १/७, पृ० १०० ४. नानुमानात्ततोर्थानां प्रतीतेदुर्लभत्वतः । परप्रसिद्धिरप्यस्य प्रसिद्धा नाप्रामाणिका ॥ -त० श्लो० वा० १/३, सूत्र २०, श्लोक ९७ पृष्ठ २४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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