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________________ शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 75 विद्यानन्द आदि जैन न्यायशास्त्रियों का तर्क है कि यदि शब्दब्रह्म साधक कोई प्रमाण है, तो प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों में से कोई एक हो सकता है ' । शब्दब्रह्मअद्वैतवादियों से वे प्रश्न करते हैं कि वे उपर्युक्त तीन प्रमाणों में से किस प्रमाण से शब्दब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध करते हैं। इन आचार्यों ने इसकी विस्तार से समीक्षा की है। __ शब्दब्रह्म के अस्तित्व का निराकरण करते हुए तत्वसंग्रहकार शान्तरक्षित की भांति जैन दार्शनिक आ० विद्यानन्द, अभयदेव सूरि, प्रभाचन्द्र और वादिदेव सूरि कहते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण शब्दब्रह्म का साधक नहीं है। प्रभाचन्द्राचार्य और वादिदेव सूरि शब्द-अद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि यदि वे प्रत्यक्ष प्रमाण को शब्दब्रह्म का साधक मानते हैं, तो यह बतलाना होगा कि निम्नांकित प्रत्यक्ष में से किस प्रत्यक्ष से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है । (क) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से ? अथवा, (ख) अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से ? अथवा, (ग) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ? (क) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है आचार्य विद्यानन्द तत्वार्थश्लोकवार्तिक में कहते हैं कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष प्रमाण से शब्दब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि शब्दाद्वैतवादियों ने इन्द्रियप्रत्यक्ष को स्वप्नादि अवस्था में होनेवाले प्रत्यक्ष की भाँति मिथ्या माना है । अतः इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमेय रूप सम्यग् शब्द का साधक कैसे हो सकता है ? इस प्रकार सिद्ध है कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि शब्द अद्वैतवादियों ने शब्दब्रह्म का जैसा स्वरूप प्रतिपादित किया है, वैसा किसी को इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत नहीं ३. (क) तद्धि शब्दब्रह्मनिरंशमिन्द्रियप्रत्यक्षादनुमानात्स्वसंवेदनप्रत्यक्षादागमाद्वा न प्रसिद्धः . .' । विद्यानन्दः तत्वार्थश्लोकवार्तिक, अध्याय १, तृतीय आह्निक, सू० २०, पृ० २४०। (ख) तथा हि तत्सद्भावः प्रत्यक्षेण प्रतीयतानुमानेनागमेन वा । __ -वादिदेवसूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृ० ९८ ४. (क) यतस्तत्सद्भावः किमिन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षतः प्रतीयेत्, अतीन्द्रियात्, स्वसंवेदना द्वा ?-~-प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च ०, १/५, पृ० १४२ (ख) यदि प्रत्यक्षेण, तत्किमिन्द्रियप्रभवेणातीन्द्रियेण वा । स्या० र०, १/७, पृ० ९८ १. ब्रह्मणो न व्यवस्थानमक्षज्ञानात् कुतश्चन । स्वप्नादाविव मिथ्यात्वत्तस्य साकल्पतः स्वयम् ॥ ----विद्यानन्द : त० श्लो० वा०, १/३, सूत्र २०, कारिका ९७, पृ० २४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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