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________________ 74 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 जितना भी वाच्य-वाचक तत्व है, वह सब शब्दरूप ब्रह्म का ही विवर्त अर्थात् पर्याय है। वह न तो किसी का विवर्त है और न कोई स्वतन्त्र पदार्थ है। शब्दब्रह्म-अद्वैतवाद की समीक्षा भारतीय चिन्तकों ने शब्दब्रह्म-अद्वैतवाद पर सूक्ष्म रूप से चिन्तन कर उसका निराकरण किया है। प्रसिद्ध नैयायिक जयन्त भट्ट' बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित और उसके टीकाकार कमलशील२, प्रमुख मीमांसक कुमारिल भट्ट की कृतियों में विशेषरूप से शब्दअद्वैतवाद का निराकरण विविध तर्कों द्वारा किया गया है। जैन दर्शन के अनेक आचार्यों ने इस सिद्धान्त में विविध दोष दिखाकर उसकी तार्किक मीमांसा की है। इनमें वि० ९वीं शती के आचार्य विद्यानन्द, वि० ११वीं शती के आचार्य अभयदेव सूरि५, वि० ११-१२वीं शती के प्रखर जैन तार्किक प्रभाचन्द्र, वि० १२वीं शती के नैयायिक वादिदेव सूरि और वि० की १८वीं शती के जैन नव्यशैली के प्रतिपादक यशोविजय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इन सभी के आधार पर इस सिद्धान्त का निराकरण किया जा रहा है । शब्दब्रह्म की सत्ता साधक प्रमाण नहीं है शब्द-अद्वैतवादियों ने शब्दब्रह्म का जो स्वरूप प्रतिपादित किया है, वह तर्क की कसौटी पर सिद्ध नहीं होता। क्योंकि, शब्द-अद्वैतवादियों ने उसे एक परमतत्त्व माना है। जैन तर्कशास्त्रियों का मत है कि 'शब्द' प्रमेय है और प्रमेय के अस्तित्व की सिद्धि प्रमाण के अधीन होती है । आचार्य विद्यानन्द, अभयदेव सूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि आदि जैन तर्कशास्त्रियों का कथन है कि यदि शब्दब्रह्म साधक कोई प्रमाण होता है, तो उसकी सत्ता मानना ठीक था, लेकिन कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं है, जिसके द्वारा उसकी सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। आचार्य १. न्यायमञ्जरी, पृष्ठ ५३१ । २. तत्वसंग्रह, कारिका १२९–१५२, पृष्ठ ८६-९६ ।। ३. मीमांसाश्लोकवातिक, प्रत्यक्षसूत्र, श्लोक १७६ । ४. तत्वार्थश्लोकवार्तिक, अध्याय, तृतीय आह्निक, सूत्र २०, पृष्ठ २४०-२४१, श्लोक ८४-१०३ । ५. सन्मतितर्क-प्रकरणटीका, पृष्ठ ३८४-३८६ । ६. (क) न्यायकुमुदचन्द्र १/५, पृष्ठ १४२-१४७ । (ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, १/३, पृष्ठ ३९-४६ । ७. स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृष्ठ ९२-१०२ । ८. शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका।। ९. प्रमाणाधीना हि प्रमेयव्यवस्था । अभयदेव सूरि, सन्मतितर्कप्रकरणटीका, पृ० ३८४ १०. (क) न चैवंभूतब्रह्मसिद्धये प्रमाणमुपलभ्यते . . । -वही, तृतीय विभाग, गा० ६, पृ० ३८४ (ख) शब्दब्रह्मणः सद्भावे प्रमाणाभावात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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