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________________ 76 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 होता | सन्मतितर्कप्रकरण' टीका में अभयदेवसूरि और प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रभाचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रियाँ वर्तमानकालवर्ती, सम्मुखस्थित मूर्तिक ( स्थूल ) पदार्थों को ही जानती हैं । इन्द्रियजन्य-प्रत्यक्ष सूक्ष्म शब्दब्रह्म नहीं हो सकता । यदि इन्द्रिय- प्रत्यक्ष उसका साधक होता तो आज भी उसकी प्रतीति सभी को होनी चाहिये थी, लेकिन किसी को इसकी प्रतीति नहीं होती । अतः सिद्ध है कि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है । शब्दब्रह्म का सद्भाव किस इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से होता है इन्द्र प्रत्यक्ष को उसका साधक मानने पर प्रभा न्द्र और वादिदेवसूरि एक यह भी प्रश्न शब्द - अद्वैतवादियों से पूछते हैं कि स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों में से किस इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से शब्दब्रह्म का सद्भाव प्रतीत होता है ? दो ही विकल्प हो सकते हैं; 3 (क) श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से ? अथवा, (ख) श्रोत्रेन्द्रिय से भिन्न अन्य किसी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से ? श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को शब्दब्रह्म का साधक मानना ठीक नहीं है, क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष केवल शब्द को ही विषय करता है । दूसरे शब्दों में श्रोत्र का विषय शब्द है । अतः शब्द के अतिरिक्त वह अन्य किसी को नहीं जान सकता । यही कारण है कि श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष अपने विषय से भिन्न संसार के समस्त पदार्थों में अन्वित रूप से रहने वाले शब्दब्रह्म को जानने में असमर्थ है ४ । अनुमान - प्रमाण से भी यही सिद्ध होता है कि शब्दब्रह्म १. न तावत् प्रत्यक्षं तथावस्थित ब्रह्मस्वरूपावेदकम् नीलादिव्यतिरेकेण तत्रारस्य ब्रह्मस्वरूपस्याप्रतिभासनात् । - अभयदेव सूरि : सन्मतितर्कप्रकरणटीका, विभाग २, का० ६, पृ० ३८४ । २. न खलु यथोपवणितस्वरूपं शब्दब्रह्मस्वरूपं शब्दब्रह्म प्रत्यक्षतः प्रतीयते सर्वदा प्रतिनियतार्थस्वरूपग्राहकत्वेनैवास्य प्रतीतेः । - प्रभाचन्द्राचार्य : प्रमेयकमलमार्तण्ड, १/३, पृ० ४५ । तुलना कीजिये न तत्रत्यक्षतः सिद्धमविभागमभासनात् । X X X - शान्तिरक्षितः तत्वसंग्रह, कारिका १४७ । ३. (क) तथाविधस्य चास्यसद्भावः श्रोत्रभवप्रत्यक्षात् । इतरेन्द्रियजनितास्प्रत्यक्षाद्वा प्रतीयेत् । Jain Education International - प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४२ । (ख) वादिदेवसूरि : स्या० २०, १/७, पृ० ९८ । ४. - वही - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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