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सत् का लक्षण : अर्थ क्रियाका रित्व
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(ब) यदि अभाव घट से अभिन्न है तो अभाव और घट एक हो गये। तब मुद्गर
से घटाभाव की उत्पत्ति का मतलब घट की उत्पत्ति होना है। इससे भी घट कहाँ नष्ट हुआ ?
बौद्धों का कहना है कि क्षणस्यायी भाव ही विनाश है। घट प्रतिक्षण नष्ट होता रहता है। हमें जो उसके कालान्तरस्थायी होने का आभास होता है, वह प्रतिक्षण सदृश्य क्षणों (घट क्षणों) के उत्पन्न होते रहने के कारण होता है। जब मुद्गर का सन्निधान होता है, तब घट सन्तान में एक विलक्षण क्षण की उत्पत्ति होती है और कुछ काल तक वैस ही क्षण चलते रहते हैं जिस आधार पर कपाल सन्तान का व्यवहार होता है । मुद्गर का व्यापार घट सन्तान के अभाव में न होकर कपाल सन्तान की उत्पत्ति में होता है।
बौद्ध सत् को स्वभावत. अहेतुक विनाशी साथ-साथ निरन्वय विनाशी भी मानते हैं । पूर्वक्षण के किसी भी अंश का उत्तरक्षण में किसी भी प्रकार से संचार नहीं होता। यदि ऐसा नहीं माना जाये तो दूसरे से तीसरे में और तीसरे से चौथे में इस तरह से उस अंश का संचार होता चला जायेगा और वही नित्य हो जायेगा। अत: बौद्ध प्रत्येक क्षण को पृथक्-पृथक् मानते हैं। जैसे ही क्षण उत्पन्न होता है, उसके अनन्तर निरन्वय रूप से विनष्ट हो जाता है।
प्रश्न उठता है कि यदि सत् क्षणिक है तो बह अपने कार्य को कैसे उत्पन्न करता है ? शान्तर क्षित ने इसका जवाब निम्न प्रकार से दिया है :(१) क्षण सन्तति में कारणक्षण नष्ट होने के पहले ही कार्यक्षण को अपनी शक्ति दे
देता है। प्रथम क्षण में उत्पन्न होने वाले और अभी तक अविनष्ट शक्तिमान कारण से द्वितीय क्षण में ही कार्य उत्पन्न होता है । यदि कार्योत्पाद तृतीय क्षण में माना जाये तो विनष्ट कारण से कार्य की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि कारण तो प्रथम क्षण में उत्पन्न होकर द्वितीय क्षण में नष्ट हो जाता है। जो आनन्तर्य नियम है अर्थात् 'कारणक्षण के अनन्तर ही कार्यक्षण की उत्पत्ति' है, वही 'अपेक्षा' कहलाती है। और कारण की सत्तामात्र ही उसका व्यापार है क्योंकि कारण की सत्तामात्र से ही कार्य की उत्पत्ति होती है'११ । ८. सौगत सिद्धांत सारसंग्रह, पृ० १९४ । चौखम्बा प्रकाशन । ९. देखें-Gifigur of Indian Realisere (द्वितीय संस्करण) पृ० २९१ ।
भारतीय विद्या प्रकाशन । १०. देखें--Buddhist Logic, भाग I, पृ० ९५ । ११. सौगत-सिद्धांत सार संग्रहः पृ० १९६-९७ । .
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