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________________ 144 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 उपर्युक्त चार कथनों की हमें मीमांसा करनी है । (अ) जब पूर्वक्षण है तब उत्तरक्षण नहीं है और जब उत्तरक्षण है तब पूर्वक्षण नहीं है । कोई दो क्षण एक साथ नहीं होते । अत: कारण और कार्य एक क्षण में नहीं होते । (ब) ऊपर उल्लिखित प्रथम में अपनी शक्ति दे देता है । फिर यह नहीं हो जाता है । मानने पर : शान्तरक्षित कहते हैं कि कारणक्षण कार्यक्षण को लेकिन निरन्वयक्षणिकवाद का सिद्धान्त मानने पर माना जा सकता कि कारण को शक्ति का कार्य में संचार पूर्वोत्तर क्षणों में किसी शक्ति या किसी अंश का संचार (1) क्षणों को परस्पर संबंधित माना पड़ेगा, अर्थात् (२) सन्तान को वास्तविक मानना पड़ेगा. अर्थात् (३) किसी अंश में नित्यत्व को स्वीकार करना पड़ेगा; जबकि बौद्ध इनमें से किसी भी बात को स्वीकार करना नहीं चाहते । अतः ' कारण अपनी शक्ति कार्य को दे देता है' - ऐसा नहीं कहा जा सकता । ( स ) कथन ( २ ) में कहा गया है कि 'कारण से द्वितीय क्षण में कार्य उत्पन्न होता है' और कथन ( ३ ) में कहा गया है कि 'कारण द्वितीय क्षण में नष्ट हो जाता है" । यहाँ यह तो माना नहीं जा सकता कि कारण द्वितीय क्षण में कार्य को उत्पन्न भी कर देता है और फिर नष्ट हो जाता है, क्योंकि इसका मतलब होगा क्षण में भी टुकड़े करना जबकि क्षण का आशय ही अविभाज्य कालांश होता है । 'कारण के नष्ट होने से ही द्वितीय क्षण में कार्य उत्पन्न हो जाता है ' - यह आशय लेने में भी अनेकों परेशानियाँ हैं । असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? तृतीय क्षण में कार्योत्पाद नहीं हो सकता, इस स्थापना के लिए कथन (३) में स्वयं शान्तरक्षित ने युक्ति दी है कि तब हमें 'विनष्ट कारण से कार्य की उत्पत्ति माननी पड़ेगी' अर्थात् वे स्वयं 'असत् से सत् उत्पन्न नहीं हो सकता' इस मान्यता को स्वीकार करते हैं । Jain Education International वस्तुतः शान्तरक्षित के ये कथन 'क्षणिकवाद में कर्म और कर्मफल की व्यवस्था कैसे संभव है ?' इस प्रश्न के उत्तर के रूप में आये हैं । इसके साथ ही स्मृति को व्याख्या का भी प्रश्न जुड़ा है । परन्तु निरन्वय क्षणिकवाद का सिद्धान्त मान लेने पर इनकी तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत नहीं की जा सकती । द्वितीय क्षण में कार्योत्पत्ति मानने में एक परेशानी यह भी है कि ब हमें प्रथम क्षण को अर्थक्रियारहित हो जाने से असत् मानना पड़ेगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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