________________
तत्वार्थ सूत्र
२. एक साथ १९ परीषह, ९-१७ ।
३. तीर्थंकर प्रकृति के १६ बंधकारण,
६-२४ ।
जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष
४. विविक्तशय्यासनतप, ९-१९ ।
५. नाग्न्य परीषह, ९-९ ।
६. लोकान्तिक देवों के भेद, ४-४२ ।
वह
यह ऐसा मौलिक अन्तर है, जिसे श्वे. आचार्यों का मतभेद नहीं कहा जा सकता तो स्पष्टतया परम्पराभेद का प्रकाशक है । नियुक्तिकार भद्रबाहु या अन्य श्वेता. आचार्यों ने सचेल श्रुतका पूरा अनुगमन किया है, पर तत्त्वार्थ सूत्रकार ने उसका अनुगमन नहीं किया । अन्यथा सचेलश्रुत विरुद्ध उक्त प्रकार का कथन तत्त्वार्थसूत्र में न मिलता ।
४३.
४४.
४५.
तत्त्वार्थसूत्र में 'अचेल परीषह' के स्थान पर 'नाग्न्य परीषह' रखने पर विचार करते हुए हमने उक्त निबन्ध में लिखा कि 'अचेल ' शब्द जब भ्रष्ट हो गया और उसके अर्थ में भ्रान्ति होने लगी, तो आ. उमास्वाति ने उसके स्थान में नग्नता - सर्वथा वस्त्ररहितता अर्थ को स्पष्टतः ग्रहण करने के लिए 'नाग्न्य' शब्द का प्रयोग किया । इसका तर्कसंगत समाधान करके एक विद्वान लिखते हैं कि श्वे. आगमों में नग्न के प्राकृत रूप नग्न या णागिण के अनेक प्रयोग देखे जाते हैं ।' प्रश्न यह नहीं है कि आगमों में नग्न के प्राकृत रूप नग्न या प्राणि के प्रयोग मिलते हैं । प्रश्न यह है कि श्वे. 'अचेल परीषह' की स्थानापन्न 'नाग्न्य परीषह' उपलब्ध है ? इस प्रश्न का केवल उनमें 'नाग्न्य' शब्द के प्राकृत रूपों (नग्ग, णगिन) के प्रयोगों की बात करना समाधान है । वस्तुतः उन्हें यह बताना चाहिए कि उनमें नाग्न्य परीषह है । किन्तु यह तथ्य है कि उनमें 'नाग्न्य परीषह' नहीं है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने ही उसे 'अचेल परीषह' के स्थान सर्वप्रथम अपने तत्त्वार्थसूत्र में दिया है ।
आगमों में क्या उत्तर न देकर
८
121
सचलश्रुत
एक साथ बीस परीषह, (उत्तरा त. जैना, पृ. २०८ ) ।
तीर्थंकर प्रकृति के २० बंधकारण, (ज्ञातृ. सू. ८-६४) । संलीनता तप, ( व्याख्याप्र. सू. २५।७।८ ) । अचेल परीषह, (उत्तरा. सू. पृ. ८२३ । लोकान्तिक देवों के ९ भेद, (ज्ञातृ., भगवती ) ।
उक्त निबन्ध में परम्परा भेद की सूचक तत्त्वार्थ सूत्रगत तत्त्वार्थ सूत्र में श्वेताम्बर श्रुतसम्मत संलीनता तप का ग्रहण उनमें विविक्त शय्यासन तप का ग्रह है, जो श्वेताम्बर श्रुत में अनुसार संलीनता तप के चार भेदों में परिगणित विविक्त चर्यां द्वारा भी तत्त्वार्थ सूत्रकार
एक बात कही है४४ कि नहीं किया, इसके विपरीत नहीं है । हरि भद्रसूरि के
Jain Education International
जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ. ८३ ।
वही, पृ. ८१ ।
व्याख्याप्र. शा. २५, उ. ७, सू. ८ की हरिभद्रसूरिकृत वृत्ति तथा वही,
पृ. ८१ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org