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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
हमारा ख्याल है, सबसे पहले पण्डित सुखलाल जी 'प्रज्ञाचक्षु' ने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी arrer fer कर्तृत्व विषय में दो लेख लिखे थे और उनके द्वारा तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी कर्ता को तटस्थ परम्परा (न दिगम्बर, न श्वेताम्बर) का सिद्ध किया था। इसके कोई चार वर्ष बाद सन् १९३४ में उपाध्याय श्री आत्मारामजी ने कतिपय श्वेताम्बर आगमों के सूत्रों के साथ तत्त्वार्थ सूत्र के सूत्रों का तथोक्त समन्वय करके 'तत्त्वार्थ सूत्र - जैनागम - समन्वय' नाम से एक ग्रन्थ लिखा और उसमें तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर परम्पराका ग्रन्थ प्रसिद्ध किया । जब यह ग्रन्थ पण्डित सुखलालजी को प्राप्त हुआ, तो अपने पूर्व (तटस्थ परम्परा ) के विचार को छोड़कर उन्होंने उसे मात्र श्वेताम्बर परम्परा का प्रकट किया तथा यह कहते हुए कि "उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा के थे और उनका सभाष्य तत्त्वार्थ सचेल पक्षके श्रुतके आधार पर ही बना है ।" "वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा में हुए, दिगम्बर में नहीं ।" इस तेरह निःसंकोच तत्त्वार्थ सूत्र और उसके कर्ताको श्वेताम्बर होने का अपना निर्णय भी उन्होंने दे दिया है ।
इसके बाद पं० परमानन्दजी शास्त्री ४०, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री ४१, पं० नाथूरामजी प्रेमी जैसे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी तत्त्वार्थ सूत्रकी जांच की। इनमें प्रथम के दो विद्वानों ने उसे दिगम्बर और प्रेमीजी ने यापनीय ग्रन्थ प्रकट किया। हमने भी उस पर विचार करना उचित एवं आवश्यक समझा और उसीके फलस्वरुप तत्त्वार्थ सूत्र की मूल परम्परा खोजने के लिए उक्त निबन्ध लिखा । अनुसन्धान करने और साधक प्रमाण मिलने पर हमने उसकी मूल परम्परा दिगम्बर बतलायी ।
तत्त्वार्थ सूत्र और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में प्रतिपादित नयों और गृहस्थ के १२ व्रतों में वैचारिक या विवेचन पद्धति का अन्तर है । ऐसा मतभेद परम्परा की भिन्नता को प्रकट नहीं करता । समन्तभद्र, जिनसेन और सोमदेव के अष्टमूलगुण भिन्न होनेपर भी वे एक ही (दिगम्बर) परम्पराके हैं । पात्रभेद एवं कालभेद से उनमें ऐसा विचार-भेद होना सम्भव है । विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रत्यभिज्ञान के दो भेद माने हैं और अकलंक, मणिक्यनन्दि आदि ने उसके अनेक ( दो से ज्यादा ) भेद बतलाये हैं । और ये सभी दिगम्बर आचार्य हैं । पर तत्त्वार्थ सूत्र और सचेलश्रुत में ऐसा अन्तर नहीं है । उनमें मौलिक अन्तर है, जो परम्परा भेद का सूचक है | ऐसे मौलिक अन्तर को ही हमने उक्त निबन्ध में दिखाया है । संक्षेप में उसे यहाँ दिया जाता है
तत्त्वार्थसूत्र
१. अदर्शन परीषह, ९-९, २४ ।
४०. अनेकान्त, वर्ष ४, कि. १ ।
४१.
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सचेलश्रुत
दंसण परीसह, सम्मत्त परीसह, (उत्तरा. सू. पृ. ८२) ।
अनेकान्त, वर्ष ४, कि. ११-१२ तथा वर्ष ५ कि. १-२ । जैन साहित्यका इतिहास, पृ. ५३३, द्वि. सं. १९५६ ।
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