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________________ जैनशास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष ग्रन्थकारों का अनुसरण पाया जाता है और ये तीनों ग्रन्थकार समन्तभद्र के उत्तरवर्ती हैं । तब समन्तभद्र को न्यायावतारकार सिद्धसेन का परवर्ती बतलाना आयुक्त या अप्रमाण (निराधार ) है । तीसरा प्रश्न है कि न्याय शास्त्र के समग्र विकास की प्रक्रिया में जैन न्याय, बौद्ध-न्याय तथा ब्राह्मण - न्याय का कहाँ स्थान है । हम ने 'जैन न्याय का विकास' लेख ३४ में यह लिखा है कि 'जैन न्याय का उद्गम बौद्ध और ब्राह्मण न्यायों से नहीं हुआ, अपितु दृष्टवादश्रुत से हुआ है । यह सम्भव है कि उक्त न्यायों के साथ जैन न्याय भी फला-फूला हो । अर्थात् जैन न्याय के विकास में ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय का बिकास प्रेरक हुआ हो और उनकी विविध क्रमिक शास्त्र रचना जैन न्याय की कमिक शास्त्र - रचना में सहायक हुई हो । समकालीनों में ऐसा आदान-प्रदान होना या प्रेरणा लेना स्वाभाविक है । जहाँ तक जैन न्याय के विकास का प्रश्न है, उसमें हमने स्पष्टतया बौद्ध और ब्राह्मण न्याय के विकास को प्रेरक बतलाया है और उनकी शास्त्र रचना को जैन न्याय की शास्त्र - रचना में सहायक स्वीकार किया है । हाँ, जैन न्याय का उद्गम उनसे नहीं हुआ, अपितु दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्गश्रुत से हुआ । अपने इस कथन को हमने सिद्धसेन ( द्वात्रिंशिकाकार ) अ अकलंक ३६, विद्यानन्द और यशोविजय के प्रतिपादनों से पुष्ट एवं प्रमाणित किया है । 7 एक अन्य प्रश्न यह उठाया जाता है कि कुछ बातों में तत्त्वार्थ सूत्रकार और अन्य श्वेता, आचार्यों में मतभेद होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि तत्त्वार्थ सूत्रकार श्वेता परम्परा के नहीं हो सकते । इस कथन के समर्थन में कुन्दकुन्द और तत्त्वार्थ सूत्रकार के नयों और गृहस्थ के १२ व्रतों सम्बन्धी मतभेदों का उल्लेख किया गया है । इस सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद जैन संघ दो परम्पराओं में विभक्त हो गया – एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर । ये दोनों भी उपपरम्पराओं में विभाजित हैं । किन्तु मूलतः दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो ही परम्पराएँ हैं । जो आचार्य दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्य कहे जाते हैं तथा उनके द्वारा निर्मित साहित्य दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य माना जाता है । अब देखना है कि तत्त्वार्थ सूत्र में दिगम्बरत्व का समर्थन है या श्वेताम्बरत्व का । हमने अपने 'तत्त्वार्थ सूत्र की परम्परा' निबन्ध में इसी दिशा में विचार निबन्ध की भूमिका बाँधते हुए उसमें प्रावृत्त के रूप में हमने लिखा है ३४. ३५. ३६. 119 ३७. ३८. ३९. Jain Education International जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ. ७ । द्वात्रिंशिका, १ ३०, ४-१५ । तत्त्वार्थवा०८-१, पृ. २९५ । अष्टसं., पृ. २३८ । अष्ट सं. विवरण (टीका), पृ. १ । जैनदर्शन और प्रमाण शा०, पृ. ७६ । For Private & Personal Use Only किया है । इस कि 'जहाँ तक www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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