________________
122
Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
विविक्त शय्यासन का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि विविक्त चर्या दूसरी चीज़ है और fafaक्त शय्यासन अलग चीज है ।
हमारे इस कथन की भी समीक्षा करते हुए लिखा गया है कि विविक्तचर्या में और विविक्तशय्यासन में कोई अर्थ भेद है ही नहीं ।
पर जैन धर्म का साधारण ज्ञाता भी यह जानता है कि चर्या गमन ( चलने) को कहा गया है और शय्यासन सोने एवं बैठने को कहते हैं। दोनों में दो भिन्न दिशाओं की तरह भेद है । साधु जब ईर्या समिति से चलता है—चर्या करता हैं तब वह सोता बैठता नहीं है और जब सोता बैठता है तब वह चलता नहीं है । वस्तुतः उनमें पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है । यहाँ विशेष ध्यातव्य है कि तत्त्वार्थ सूत्रकार ने २२ परीवहों में चर्या, मिषद्या और शय्या इन तीनों को परीवह के रूप में गिनाया है किन्तु तपों का विवेचन करते हुए उन्होंने चर्या को तप नहीं कहा, केवल शय्या और आसन दोनों को एक बाह्यतप बतलाया है, जो उनकी सूक्ष्म सिद्धान्तज्ञता को प्रकट करता है। वास्तव में चर्या विविक्त में नहीं हो सकती । मार्ग में जब साधु गमन करता है तो उसमें उसे मार्गजन्य कष्ट तो हो सकता है और उसे सहन करने से उसे परीषहजय कहा जा सकता है । किन्तु उसमें विविक्तपना नहीं हो सकता और इस लिए उन्होंने विविक्त चर्या तप नहीं बतलाया । शय्या और आसन दोनों एकान्त में हो सकते हैं । अतएव उन्हें विविक्त शय्यासन नाम से एक तप के रूप में बाह्य तपों में भी परिगणित किया गया है। पं० सुखलाल जी४७ ने भी चर्या और शय्यासन में अर्थभेद स्वीकार किया है । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'स्वीकार किये धर्मजीवन को पुष्ट रखने के लिए असंग होकर भिन्न-भिन्न स्थानों में विहार और किसी भी एक स्थान में नियतवास स्वीकार न करना चर्या परीषह है आसन लगाकर बैठे हुए ऊपर यदि भय का प्रसंग आ पड़े तो उसे अकम्पित भाव से आसन से च्युत न होना निषद्या परीषह है' ""जगह में समभावपूर्वक परीषह है ।'
।'
जीतना कि वा आसन शयन करना शय्या
तत्त्वार्थ सूत्र में परम्परा भेद की एक और महत्त्वपूर्ण बात को उसी निबन्ध में प्रदर्शित किया गया है । ४८ हमने लिखा है कि श्वेताम्बर श्रुत में तीयँकर प्रकृति के २० बन्ध कारण बतलाये हैं और इसमें ज्ञातृधर्मकथांग सूत्र ( ८-६४ ) तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु की आवश्यकतिर्युक्ति की चार गाथाएँ प्रमाण रूप में दी हैं । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र में तीर्थंकर प्रकृति के १६ ही कारण निर्दिष्ट हैं, जो दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध आगम 'षट्खण्डागम' ( ३- ४१ ) के अनुसार हैं और उनका वही क्रम तथा वे ही नाम हैं ।
[***
इसकी भी समीक्षा करते हुए लिखा गया है कि 'प्रथम तो यह तत्त्वार्थ एक सूत्रग्रन्थ है, उसकी शैली संक्षिप्त है, दूसरे तत्त्वार्थसूत्रकार ने १६ की संख्या का निर्देश
४६.
४७.
85.
त. सू. ९-१९ ।
त. सू. विवेचन सहित, ९-९, पृ. ३४८ ।
जैन दर्शन और प्रमाण शास्त्र, परि०, पृ. ७९-८० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org