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________________ बाहुबलि-कथा का विकास एवं तद्विषयक साहित्य : एक सर्वेक्षण 93 रास परम्परा के साहित्य में जितनी रचनाएँ उपलब्ध हैं, उनमें “भरतेश्वरबाहुबलीरास'' सर्वप्रथम एवं अति विस्तृत रचना मानी गयी है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सन्धिकालीन हिन्दी जैन-साहित्य की कृति है तथा लगभग १३वीं सदी से १५वीं सदी के मध्य लिखे गये रासासाहित्य की एक प्रतिनिधि रचना है। प्रस्तुत रासा-काव्य की बाहुबली-कथा का प्रारम्भ अयोध्या नगरी के सम्राट ऋषभ के गुण-वर्णनों से होता है। उनकी सुमंगला एवं सुनन्दा नामक रानियों से क्रमशः भरत एवं बाहुबली का जन्म होता है। योग्य होने पर भरत को अयोध्या तथा बाहुबली को तक्षशिला का राज्य मिलता है। ऋषभ को जिस दिन कैवल्य की प्राप्ति होती है, उसी दिन भरत को उनकी आयुध-शाला में दिव्य-चक्ररत्न की उपलब्धि होती है। उसके बल से वे दिग्विजय करते हैं। वापस लौटते समय जब वे अयोध्या के बाहर रुक जाते हैं, तभी उन्हें विदित होता है कि बाहुबली को जीते बिना उनकी सफलता अपूर्ण है । यह देखकर वे अपने दूत को भेजकर बाहुबली को अधीनता स्वीकार करने का सन्देश भेजते हैं। बाहुबली के द्वारा अस्वीकार किये जाने पर दोनों भाइयों में युद्ध हो जाता है और वह लगातार १३ दिनों तक चलता है। दोनों पक्षों की अपार सेना की क्षति देखकर तथा अवशिष्ट सैन्य क्षति-ग्रस्त न हो, इस उद्देश्य से वे नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध करते हैं। भरत इन युद्धों में बाहुबली से पराजित होकर उन पर चक्र चला देते हैं। इस मर्यादा-विहीन कार्य से भी यद्यपि बाहुबली का कुछ बिगड़ता नहीं, फिर भी उन्हें भरत के इस अनैतिक कार्य पर बड़ा दुःख होता है और वे वैराग्य से भरकर दीक्षित हो जाते हैं। भरत शासन सम्हालते और यशार्जन करते हैं । यहीं पर कथा का अन्त हो जाता है । यह रचना वीर-रस-प्रधान है। किन्तु उसका अवसान शान्तरस में हुआ है । भयानक नर-संहार के बाद जब दोनों भाइयों में नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध एवं मल्लयुद्ध होता है, तब उसमें भरत की पराजय होती है और वह आगबबूला होकर बाहुबली पर चक्ररत्न से आक्रमण कर देते हैं । भौतिक-सम्पदा-प्राप्ति के लिए भरत के इस अनैतिक और अमर्यादित कार्य को देखकर बाहुबली को वैराग्य हो जाता है और वे कहते हैं “धिक् धिक् ए एय संसार धिक् धिराणिम राज रिद्धि । एवडु ए जीव संहार की धड़ कुणं विरोध वसि ॥"२ वीर रस-प्रधान उक्त काव्य के उक्त प्रसंग में समस्त आलम्बन शान्ति में परवर्तित हो जाते हैं। इस सहसा परिवर्तन की निर्दोष अभिव्यक्ति कवि की अपनी विशेषता है । स्वपराजयजन्य तिरस्कार के कारण भरत का अपने सहोदर पर धर्मयुद्ध के स्थान पर चक्र का प्रहार घोर अनैतिक कार्य था। इसी अनैतिक कार्य ने बाहुबली के हृदय में शम १. दे० आदिकाल के अज्ञात हिन्दी रासकाव्य, पृ० ३७-५४ । २. दे० भरतेश्वर, बाहुबलीरास, पद्य, सं १९१, १९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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