________________
Vaishali Institute Research Bulletin No. 4
की सृष्टि की और फलस्वरूप वे दीक्षित हो गये । यह देख भरत के नेत्र डबडबा उठे और वे उनके चरणों में गिर गये । यथा
94
" सिरिवरिए लोंच करेउ कासगि रहिउ बाहुबले । अंसूइ आँखि भरेउ तस पणभए भरह भडो || १
--काल,
प्रस्तुत काव्य में प्रयुक्त विविध अलंकारों की छटा, प्रसंगानुकूल विविध छन्द योजना, कथोपकथन एवं मार्मिक उक्तियों ने इसे एक आदर्श काव्य की कोटि में ला खड़ा किया है | तत्कालीन प्रचलित भाषाओं का तो इसे संग्रहालय माना जा सकता है । इसमें उत्तर अपभ्रंश (यथा-रिसय, भरह, चक्क आदि), राजस्थानी, जूनी, गुजराती (यथापरवेस, कुमर, आणंद, डामी, जिणभई आदि) के साथ-साथ अनेक प्राचीन (यथा - नमिवि, नरिदह आदि), नवीन (यथा-वार, वरिस, फागुण) आदि एवं तत्सम (यथा -- चरित्र, मुनि, गुणगणभंडार आदि) शब्दों के भी प्रयोग हुए हैं ।
" रचना के लेखक शालिभद्रसूरि हैं । रचना में कवि उसके रचना स्थल प्रस्तुत 'र की सूचना नहीं दी, किन्तु भाषा एवं वर्णन प्रसंगों से यह स्पष्ट विदित होता है कि वे गुजरात अथवा राजस्थान के निवासी थे तथा वहीं कहीं पर उन्होंने इसकी रचना की । कवि ने इसका रचना -काल स्वयं ही वि० सं० १२४१ कहा है । यथा
"जो पढइ ए वसह वदीत सोनरो नितु नवनिहि लहइ । संवत् ए बार एक तालि फागुण पंचमिई एउ कोड ए ॥ २
महाकवि अमरचन्दकृत पद्मानन्द-महाकाव्य में बाहुबली के चरित्र का चित्रण काव्यात्मक शैली में हुआ है । उसके नौवें सर्ग में भरत - बाहुबली जन्म एवं १७वें सर्ग में वर्णित कथा के आरम्भ के अनुसार दिग्विजय से लौटने पर भरत का चक्ररत्न जब अयोध्या नगरी में प्रविष्ट नहीं होता, तब उसका कारण जानकर भरत अपनी पूरी शक्ति के साथ बाहुबली पर आक्रमण करते हैं और सैन्य युद्ध के पश्चात् दृष्टि, जल एवं मुष्ठि युद्ध में पराजित होकर भरत अपना चक्ररत्न छोड़ते हैं, किन्तु उसमें भी वह विफल सिद्ध होते हैं । बाहुबली भरत के इस अनैतिक कृत्य पर दुखी होकर संसार के प्रति उदासीन होकर दीक्षा ग्रहण कर तपस्या हेतु वन में चले जाते हैं ।
पद्मानन्द महाकाव्य में नवीन कल्पनाओं का समावेश नहीं मिलता । बाहुबली की विरक्ति आदि सम्बन्धी अनेक घटनाएँ चित्रित की गयी हैं । उनका आधार पूर्वोक्त पउमचरियं एवं पद्मपुराण ही हैं । कवि की अन्य उपलब्ध रचनाओं में बालभारत, काव्यकल्पलता, स्यादिशब्द समुच्चय एवं छन्द रत्नावली प्रमुख हैं । ४
Jain Education International
१. दे० भारतेश्वर बाहुबलीरास पद्य, सं० १९१, १९३ ।
२.
दे० भरतेश्वर बाहुबली रास, पद्य सं० २०३.
३.
6.
सयाजीराव गायकवाड ओरियण्टल इंस्टीट्यूट ( बड़ौदा १९३२ ई०) से प्रकाशित । विशेष के लिए देखिये - संस्कृत काव्य के विकास में जैनकवियों का योगदान (दिल्ली १९७०)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org