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________________ बाहुबलि-कथा का विकास एवं तद्विषयक साहित्य : एक सर्वेक्षण 91 के समय जिन कल्पनाओं एवं मनोभावों के चित्रण किये हैं, वे उनके बाहुबली-चरित को . निश्चय ही एक विशिष्ट काव्यकोटि में प्रतिष्ठित कर देते हैं।' महाकवि पुष्पदन्त कहाँ के निवासी थे, इस विषय में शोध विद्वान अभी खोज कर रहे हैं। बहुत सम्भव है कि वे विदर्भ अथवा कुन्तल देश के निवासी रहे हों, उनके पिता का नाम केशवभट्ट एवं माता का नाम मुग्धादेवी था। उनका गोत्र काश्यप था । वे ब्राह्मण थे, किन्तु जैन-सिद्धान्तों से प्रभावित होकर बाद में जैन धर्मानुयायी हो गये। वे जन्मजात प्रखर प्रतिभा के धनी थे। वे स्वभाव से अत्यन्त स्वाभिमानी थे और काव्य के क्षेत्र में तो, उन्होंने अपने को काव्यपिशाच, अभिमान मेरु, कविकुलतिलक जैसे विशेषणों से अभिहित किया है। उनके स्वाभिमान का एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि वीर-शैव राजा के दरबार में जब उनका कुछ अपमान हो गया तो वे अपनी गृहस्थो को एक थैले में डालकर चुपचाप चले आये थे और जंगल में विश्राम करते समय जब किसी ने उनसे नगर में चलने का आग्रह किया, तब उन्होंने उत्तर दिया था कि-"पर्वत की कन्दरा में घास-फूस खा लेना अच्छा, किन्तु दुर्जनों के बीच में रहना अच्छा नहीं। माँ की कोख से जन्म लेते ही मर जाना अच्छा, किन्तु सवेरे-सबेरे दुष्ट राजा का मुख देखना अच्छा नहीं।"२ कवि की कुल मिलाकर तीन रचनाएँ हैं—णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ एवं महापुराण अथवा तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकारु । ये तीनों ही अपभ्रशभाषा की अमूल्य कृतियाँ मानी जाती हैं । कवि पुष्पदन्त का समय सन् ९६५ ई० के लगभग माना गया है।" जिनेश्वरसूरि ने अपने "कथाकोषप्रकरण' की ७वीं गाथा की व्याख्या के रूप में "भरतकथानकम्" प्रसंग में बाहुबली के चरित का अंकन किया है। उसमें ऋषभदेव की दूसरी पत्नी सुनन्दा से बाहुबली एवं सुन्दरी को युगल रूप में उत्पन्न बताया गया है । बाकी कथानक पूर्व ग्रन्थों के अनुसार ही लिखा गया है। किन्तु शैली कवि की अपनी है । उसमें सरसता एवं जीवन्तता विद्यमान है । आचार्य जिनेश्वरसूरि वर्धमानसूरि के शिष्य थे। उन्होंने वि० सं० ११०८ में उक्त ग्रन्थ की रचना की थी। लेखक अपने समय का एक अत्यन्त क्रान्तिकारी कवि के रूप में १. दे० महापुराण, १६-१८ सन्धियाँ । २. दे० जैन साहित्य और इतिहास-नाथूरामप्रेमी (बम्बई, १९५६), पृ० २२५ २३५ । ३. भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली, १९७२) से प्रकाशित । ४. भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली, १९७२) से प्रकाशित । ५. दे० णायकुमार चरिउ की प्रस्तावना-पृ० १८ । ६-७. सिंधी जैन सीरीज (ग्रन्थांक ११, बम्बई १९४९) से प्रकाशित-दे० भरत कथानकम्, पृ० ५०-५५ । ८. दे. वही, प्रस्तावना, पृ० २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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